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________________ इस प्रथम प्रकाश में श्री वीतराग अरिहन्त परमात्मा का स्वरूप प्रदर्शित करने के साथ परमात्म-दर्शन एव मिलन के उपायो का भी स्पष्ट निर्देश है, वह इस प्रकार है - __ “स श्रद्धेयः" अर्थात् वही श्रद्धय है । इस वाक्य से प्रीति एव भक्ति दोनो ग्रहण होती हैं। : जो सचमुच श्रद्धा करने योग्य होता है उस पर ही प्रीति और भक्ति उत्पन्न होती है। माता का वात्सल्य बालक मे माता के प्रति पूर्ण श्रद्धा जागृत करता है, उसी प्रकार से भगवान का अपार वात्सल्य, करुणा, भावदया भक्त को भगवानमय बनाते हैं । परमात्मा की अखण्ड प्रीति एव निष्काम भक्ति परमात्म-दर्शन के प्रधान साधन हैं। ___ और "स च ध्येयः' अर्थात् वही ध्यान करने योग्य है, यह पद परमात्मा का सभेद पीर अभेद प्रणिधान करने की सूचना देता है और वह मुख्यत. वचन एव असग अनुष्ठान का द्योतक है । सर्व गुण सम्पन्न परमात्मा को ध्येय बना कर ही ध्याता ध्येय स्वरूप बन सकता है, यह नियम त्रिकालाबाधित है। स्वभाव से परिपूर्ण आत्मा को अपूर्ण का ध्यान सब प्रकार से हानिप्रद होता है। उसके पश्चात के पदो द्वारा श्रद्धा एव ध्यान को अर्थात् उपर्युक्त प्रीति, भक्ति, वचन एव असग अनुष्ठान को पुष्ट करने वाले साधनो का निर्देश किया गया है। (१) शरण स्वीकार करके सर्व-समर्पण-भाव प्रदर्शित किया गया है । उसी के शरण मे जाया जाता है, जो शरणागत की पूर्णरूपेण सुरक्षा करने में समर्थ हो। १८ मिले मन भीतर भगवान
SR No.010740
Book TitleSmarankala
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDhirajlal Tokarshi Shah, Mohanlalmuni
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1980
Total Pages293
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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