________________
इस तरह मोक्ष रूपी कार्य का उपादान (वीज) प्रात्मा स्वय है। श्री अरिहन्त परमात्मा की भक्ति मे अकुर के स्प मे सम्यग् दर्शन गुण की प्राप्ति होती है, तत्पश्चात् ही क्रमश मोक्ष रूपी फल प्राप्त होता है।
इस प्रकार किसी भी भव्यात्मा को धर्म-प्रशसा पी बीज की प्राप्ति मे प्रारम्भ होकर क्रमण प्राप्त हाने वाली मोक्ष-पद तक की प्रत्येक भूमिका श्री अरिहन्त परमात्मा के अनुग्रह के प्रति अनुगृहीत है । उनके पालम्बन के विना कोई भी भव्य आत्मा स्वय अथवा अन्य किसी निमित्त के पालम्बन से मोक्षदायी आध्यात्मिक भूमिकामो मे न तो पागे वढ सकती है और न अपने पूर्ण शुद्ध स्वन्प को प्राप्त कर सकती है।
श्री अरिहन्त परमात्मा ही एक ऐसे अद्वितीय विश्वेश्वर हैं कि जिनके प्रकृष्ट शुद्ध भाव का-उत्कृष्ट भावदया का अखण्ड प्रभाव सम्पूर्ण विश्व पर अपना वर्चस्व धारण करता है।
इस भावना मे भव विनाशक शक्ति है । श्री अरिहन्त की भाव सहित भक्ति से यह शक्ति प्रकट होती है । अर्थात् जीव को भव सागर से पार करने मे केवल अरिहन्त परमात्मा ही महान् जलयान के रूप मे माने जाते हैं और जिससे मुमुक्षु गण केवल उनकी शरण पाकर स्वय को कृतकृत्य अनुभव करते हैं ।
पूर्णानन्दमय, पूर्ण गुणवान श्री वीतराग अरिहन्त परमात्मा की अद्भुत महिमा, उनके साथ अपना सम्बन्ध, सम्पूर्ण जीव लोक के प्रति उनके असख्य उपकार, उनकी स्तुति-वन्दना के रूप मे भक्ति का फल आदि विषयो पर पावन प्रकाश डालने वाली 'वीतराग स्तोत्र' एक प्रेरक कृति है।
उसका एकाग्रता से किया गया गान, अर्थ चिन्तन, भाव-भक्ति हमारे हृदय मे श्री अरिहन्त परमात्मा की सच्ची-पूर्ण प्रीति एव भक्ति जागृत करती है।
जिन-भक्ति जनित उस कृति के प्रथम प्रकाश पर अब हम अपना , · ध्यान केन्द्रित करें।
अस्य अभयस्य, भगवद्भ्य एव न स्वतो नाप्यन्येभ्य सिद्धिः इति । _ 'अभयदयाण' पद की टीका एव पजिका -'ललितविस्तरा'
मिले मन भीतर भगवान