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एक भक्त कवि ने तो यहां तक कह दिया है कि 'हे अरिहन्त परमात्मा ! आपकी भक्ति के सुप्रभाव से जब मैं आपके समान बन जाऊँगा तब मुझे अपार लाभ होने के उपरान्त एक हानि भी होगी कि तत्पश्चात् मै आपकी भक्ति का लाभ प्राप्त नही कर सकूँगा।'
भक्त-हृदय के ये उद्गार भक्ति' पदार्थ के अमृतानुभव के सूचक है।
प्रत्येक प्रात्मा मे परमात्म-स्वरूप विद्यमान है, छिपा हुआ है। वह प्रकट तव ही हो पाता है जब आत्मा परमात्मा की शरण मे पहुंचती है, उनकी भक्ति मे एकात्म बन जाती है।
शाश्वत सुख, अनन्त आनन्द और चिन्मय शुद्ध आत्म-स्वरूप को प्राप्त करने का अनन्य उपाय परमात्मा की प्रीति, भक्ति एव शरणागति ही है।
वीतराग, सर्वज्ञ श्री अरिहन्त परमात्मा की भक्ति करने के प्रमुख साधन-उनका नाम उनकी मनोहर मूत्ति, उनके जीवन की पूर्व एव उत्तर अवस्था और उनकी प्रभुता है ।
प्रभु के नाम का स्मरण, प्रभु की मूर्ति के दर्शन, वन्दन एव पूजा, प्रभु के जीवन की पूर्व एव उत्तर अवस्थाम्रो का चिन्तन-मनन और प्रभु की प्रभुता अर्थात् अरिहन्त परमात्मा के प्रार्हन्त्य का मनन एव ध्यान करने से देहभाव का विलय होते ही प्रात्म-स्वरूप मे तल्लीनता आने लगती है ।
श्री अरिहन्त परमात्मा के नाम स्मरण मे से भव-ताप-निवारक ऊपमा उत्पन्न होती है । स्मरण से हमारे चित्त पर मगलकारी प्रकृष्ट शुभ भाव की छाप पडती है।
नाम स्मरण सकट के समय की जजीर है । नाम-स्मरण भव रूपी वन का पथ प्रदर्शक है।
तात्पर्य यह है कि श्री अरिहन्त परमात्मा के नाम स्मरण मे अपार शक्ति है । मोह रूपी महा विप को नष्ट करने वाला भावामृत इस नाम-स्मरण मे से प्रवाहित होता है ।
मिले मन भीतर भगवान