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स्मरण कला
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कार्य-सिद्धि का तीसरा अंग मन का एकाग्र मूड ( मिजाज ) है। किसी वस्तु को सिद्ध करने की तैयारी हो परन्तु मन की प्रवृत्ति एकाग्न न रहे, बार-बार बदलती रहे तो उस कार्य मे सिद्धि नही मिल सकती अथवा सिद्धि-प्राप्ति मे अत्यन्त परिश्रम करना पड़ता है और बहुत समय लगता है पर मर्कट जैसा चचल मन एकाग्न कैसे रहे ? यह एक गूढ प्रश्न है ? इसलिए इसके सम्बन्ध मे कुछ एक सूचनाएँ प्रस्तुत करता हूँ(१) यह कार्य मैं कर सकूगा या नहीं, ऐसी शका मन मे नही लानी
चाहिए। उसके बदले यह कार्य मै अवश्य कर सकू गा-ऐसा
आत्म-विश्वास रखना। (२) इस कार्य के बदले कोई दूसरा कार्य करूं तो ठीक रहे, इस
प्रकार की विचारणा नही करनी चाहिए। उसके बदले स्वीकृत
कार्य बहुत उत्तम है, ऐसी प्रतीति (निष्ठा) रखना। (३) यह कार्य वास्तव मे फलदायी होगा या नहीं, ऐसी विचिकित्सा
( आशका ) नही करना। उसके बदले यह कार्य पूर्ण रूप से फलदायक है और इसकी सिद्धि से मै अपने जीवन मे अद्भूत
प्रगति कर सकूँगा ऐसा दृढ-विश्वास रखना । (४) तुम्हारे स्वीकृत कार्य की कोई निन्दा करे और दूसरे के कार्यो
को प्रशसा करे तो उसके प्रलोभन मे नही पडना । “भिन्नरुचयो लोका" लोक भिन्न-भिन्न रुचि वाले होते है इस कारण एक को एक वस्तु प्रिय लगती है, तो दूसरे को दूसरी वस्तु 'प्रिय लगती है-यह जान कर अपने निश्चय मे स्थिर रहना । जो अपने ध्येय को सिद्ध करने के लिए किसी प्रकार की साधना नही करते हैं, अथवा साधना से भ्रष्ट हो गये है, उनकी बातो का विश्वास नही करना । उनकी बातो मे रस नही लेना । उनके साथ किया गया परिचय अन्त मे अपनी साधना मे विघ्न डालता है, इस लिए बन सके जहाँ तक उन से दूर रहना चाहिये और उनके कार्य-कलापो से उदासीन रहना चाहिये तथा उसके बदले जिन्होने अपूर्व पुरुषार्थ से अपने कार्यो की सिद्धि की है, उनके साथ परिचय करना, उनकी बातो से उत्साह प्राप्त करना और उनकी तरह अपने कार्य को सिद्ध करने का मनोरथ रखना उचित है।