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प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी प्रतीत होता है कि अपने स्वासी निशापति के पधारने की प्रसनता में अपने प्रकाशमय जीवन को स्वामी के प्रकाश रूप जीवन में मिला कर वह अत्यधिक प्रसन्नता का अनुभव कर रहे हैं। कहीं कहीं से किसी किसी प्रभुसक्त की भक्तिरस में पगी हुई स्वरलहरी कानों में अमृत उँडेल रही है। ऐसे समय में सम्बडियाल नगर के एक विश्राम भवन में हम एक अत्यन्त सुन्दर तथा लावण्यमयी तरुणी महिला को अनमने भाव से शय्या त्यागते देखते हैं। उसके शरीर पर बहुमूल्य वस्त्र तथा रत्नजटित पासूषण हैं, जो उसके सम्पन्न घराने को सूचित कर रहे हैं। वह शय्या को त्यागते समय अत्यन्त प्रसन्न दिखलाई दे रही है, जो उसके मुख की हास्य रेखा से प्रकट है। - उसने शय्या त्यागकर प्रथम रायोकार मंत्र का उच्चारण किया।
इसके बाद वह पञ्च परसेष्ठि का ध्यान करते हुए कुछ बुदबुदाने लगी।
"हैं ! वह मेरा स्वप्न था या मेरा भ्रम है ? नहीं, नहीं, वह निश्चय से स्वप्न ही था। स्वप्न ही नहीं, वह महान् कल्याणकारी मंगलमय भावीसूचक तथा सौभाग्यवर्धक स्वप्न था। सिंह कैसा भयंकर प्राणी होता है ? किन्तु स्वप्न में मुझको दिखलाई देने वाला सिंह स्वप्न में कैसा प्यारा लगता था ? सफेद सिंह तो कहीं सुनने में भी नहीं आते, किन्तु उसका रंग तो सोती के लसान ऐसा श्वेत था कि उसमें से श्वेत ज्योति निकल रही थी। फिर जब उसने मेरे सुख में प्रवेश किया तो मुझे वह और भी प्यारा लगने लगा। निश्चय से यह स्वप्न किसी भावी कल्याण का सूचक है। अब इसके सम्बन्ध में असी जाकर प्राणनाथ प्राणेश्वर से परामर्श करना चाहिये, क्योंकि बराबर शास्त्र श्रवण करने से उनको स्वप्न शास्त्र का भी