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आचार्य पद
३६१ देने में असमर्थ हूं और इस प्रकार मैं पारस्परिक साक्षात्कार का लाभ नहीं उठा सकता, तथापि मैंने अपने युवाचार्य और अन्य प्रतिष्ठित मुनिराजों को वीर शासन के कल्याण साधनों के चिन्तन में सहयोग देने के लिये भेजा है। __'इस सम्मेलन की ओर न केवल समस्त भारत के साधुमार्गी चतुर्विध संघ की, वरन् जैन धर्म की अन्य सम्प्रदायों की दृष्टि भी उत्सुकता से लगी हुई है। सम्मेलन से यह प्रबल आशा है कि वह सर्व संघ को एक धारा में प्रवाहित करने और जैन सिद्धान्त के आधार पर श्रद्धा और आचरण में एक्यता लाने का कारण बनेगा। क्षमाश्रमण देवर्द्धि गणी'ने जो कार्य डेढ़ हजार वर्ष पूर्व आरम्भ किया था, उस कार्य के पुनरुद्धार का भार भी श्राप पर होगी । सम्मेलन की परख उसके कार्यों से की जावेगी। साधु वर्ग जितना ऊंचा उठ सकेगा, उतना ही संघ के अन्य अंग उठ सकेंगे। मुझे पूर्ण विश्वास है कि आपके विचार मंथन के फलस्वरूप श्री संघ का भविष्य अपूर्व मनोहर तथा उज्वल होगा तथा आप महानुभावों का सुदूरवर्ती देश देशान्तर का पर्यटन तथा उनके परिषहों का सहन करना शासन तीर्थ की वास्तविक यात्रा सिद्ध होगा।"
आपके इस संदेश को साधु ,म्नेलन ने अत्यन्त श्रद्धापूर्वक सुना। __इस सम्मेलन के लिये इतने अधिक मुनिराजों के अतिरिक्त उनके दर्शनार्थी ५० सहस्र के लगभग स्त्री पुरुष भी अजमेर आए थे। कान्फ्रेंस के कार्यकर्ताओं को बीस सहस्र जनता के आने की आशा थी और इसी अन्दाज से उसने व्यवस्था भी की थी, किन्तु बाद में उसे अपनी सभी योजना में परिवर्तन करना पड़ा। लोकानगर नाम से एक सुन्दर नगर वसा दिया गया