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________________ पदवी दान महोत्सव ३११ अविविक्तपरिग्रहाः परिपूर्णोभयाः कथञ्चित्तर गुणविरोधिनः प्रतिसेवनाकुशीलोः । परिग्रह का त्याग न करते हुए जिनके मूल गुण तथा उत्तर गुण पूर्ण होने पर भी जिनके उत्तर गुणों में दोष लग जाया करता हो उन्हे प्रतिसेवना कुशीन कहा जाता है। कषायों को वश मे करके सज्वलन कषाय मात्र के आधीन कषाय कुशील कहे जाते हैं। ग्यारहवें तथा वारहवें गुणस्थानवर्ती उन मुनिराज-को निर्ग्रन्थ कहा जाता है जो केवल ज्ञान प्राप्त करने वाले हैं। स्नातक दो प्रकार के होते हैं-एक तेरहवें गुणस्थानवर्ती केवल ज्ञानी तथा दूसरे चौदहवे गुणस्थानवर्ती प्रयोग केवली। इस प्रकार इन मुनियों मे तत्वार्थसूत्रकार उमा स्वामी तथा सर्वार्थसिद्धिकार पूज्यपाद ने वस्त्रों के अतिरिक्त अपने शरीर को सजाने तक की प्रवृत्ति बतलाई है। इससे प्रकट है कि वस्त्र के विरुद्ध दिगम्बर जैनियों का आग्रह उनके अपने ग्रन्थों के भी विरुद्ध है। इसके अतिरिक्त मुनियों के द्वारा सहन की जाने वाली बाईस परिषहों में 'नाग्न्य' परिषह भी इसी बात को सिद्ध कस्ती है। जिस प्रकार आहार पानी न मिलने अथवा अन्तराय के कारण आहार पानी के कष्ट को सहन करना क्षुधा परीषह तथा तृषा परिषह होती है, उसी प्रकार वस्त्र न मिलने के कारण होने वाले कष्ट को सहन करना नागन्य परिषह है। जब कोई ब्यक्ति नग्न हो ही गया तो उसका परिषह कैसा?
SR No.010739
Book TitleSohanlalji Pradhanacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherSohanlal Jain Granthmala
Publication Year1954
Total Pages473
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size18 MB
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