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________________ शास्त्रार्थ नामा २६६ कहानसिंह-महाराज ! मैं समझ गया कि आपका तथा इनका सिद्धान्त तो एक ही है, क्योंकि उन्होंने तो मुखवस्त्रिका बांधी हुई है और आप उसे हाथ में लिये बैठे हैं। अतएव आपका यह प्रश्न व्यर्थ है कि मुखवस्त्रिका मुख पर बांधनी चाहिये या नहीं ? आप मुंह खोलकर तो नहीं बोल सकते। वल्लभ विजय-यदि हम भूल से या जल्दी में खुले मुख बोल भी जावें तो उसके लिये प्रातः सायं प्रतिक्रमण कर लेते हैं। उसमें इसका भी प्रायश्चित हो जाता है। भाई कहानसिंह-बल्लभ विजय जी महाराज ! मैं समझ गया कि आपका तथा इनका सिद्धान्त एक ही है। क्योंकि उन्होंने तो मुखवस्त्रिका बांधी हुई है और आप उसे हाथ में लिये बैठे हैं, अतएव आपका यह प्रश्न सर्वथा व्यर्थ है कि मुखवस्त्रिका मुख पर बांधनी चाहिये या नहीं। ___ मुनि उदयचन्द जी-तो भी हम मुखवस्त्रिका के विषय में कुछ बातें संक्षेप में बतलाना चाहते हैं। महाराज नाभा-वह हम अवश्य सुननी चाहते __ मुनि उदयचन्द-मुखवस्त्रिका वायुकाय आदि जीवों की रक्षा के लिये तथा जैन साधुओं की पहिचान के लिए मुंह पर धारण की जाती है। मुह की वायु से बाहिर के वायुकायिक जीवों की हिंसा ' होती है। मुखवस्त्रिका केवल मुख पर बांधने के लिये है, न कि शरीर प्रयार्जन के लिये। जैन आगमों में मुखवस्त्रिका को जैन साधु के वेष का एक अभिन्न अंग माना गया है, जैसा कि निम्नलिखित प्रमाणों से सिद्ध है
SR No.010739
Book TitleSohanlalji Pradhanacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherSohanlal Jain Granthmala
Publication Year1954
Total Pages473
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size18 MB
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