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________________ गणि उदयचन्द जी का सम्पर्क २५४ "अब तुमको रोकना व्यर्थ है। तुम्हारी ज्योति वह ज्योति नहीं, जिसे कोई बुझा सके। अच्छा, अब तुम जिस पथ पर आगये हो उस पर आगे बढ़ो। मेरा आशीर्वाद तुम्हारे साथ है। तुम एक महान संयमी तपस्वी मुनि बनो और जैन धर्म के अन्तरिक्ष में सूर्य के समान चमको।" अन्त में नौबतराय जी लाला पन्नालाल से पूज्य श्री सोहनलाल जी महाराज का पता लेकर कांधला जा पहुंचे । यह समय पूज्य श्री सोहनलाल जी महाराज के संवत् १६४१ के चातुर्मास का था। जिसका पहिले वर्णन किया जा चुका है। अतएव वहां लपस्या तथा धर्म ध्यान की धूम मची हुई थी। ___ नौबतराय ने पूज्य श्री के चरणों में पड़ कर उनले दीक्षा देने के लिये निवेदन किया। उन्होंने फिर वही प्रश्न किया पूज्य श्री माता पिता की आज्ञा ले आये हो ? नौबतराय-आज्ञा तो नहीं मिली। 'पूज्य श्री-फिर दीक्षा किस प्रकार हो सकती है। नौबतराय-आज्ञा मिले या न मिले। मैं तो अब वापिस लौट कर घर नहीं जाऊंगा। कृपा कर अब आप मुझे दीक्षा दे दें। मन आकुल हो गया है अब मैं अधिक प्रतीक्षा नहीं कर सकता। पूज्य श्री-यह तो नहीं हो सकता। हम शास्त्र के विधान्न का उल्लघन नहीं कर सकते। कुछ भी हो, प्रथम आज्ञा प्राप्त करो, फिर दीक्षा की बात होगी। लाचार होकर नौबतराय ने कांधले से ही अपने पिता को पत्र लिखा।
SR No.010739
Book TitleSohanlalji Pradhanacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherSohanlal Jain Granthmala
Publication Year1954
Total Pages473
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size18 MB
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