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ज्तोतिर्ज्ञानादिकापदिष्टवान् । तद्यथा--ऋषभवर्द्ध मानादिरिति ।
इस प्रमाण में वैधर्म्य का उदाहरण
जो सर्वज्ञ या प्राप्त होता है वह ज्योतिर्ज्ञान प्रादि का उपदेश देता है। जैसे-जैन ऋषभ और वर्द्धमान श्रादि। ।
इसके पश्चात् इसी ग्रन्थ में पृष्ठ १२८ (संस्कृत) तथा पृष्ठ ३३ (भापा) में कहा गया है___ अवैधोदाहरणम्-यो वीतरागो न तस्य परिग्रहाग्रहो । यथा-ऋषभादेरिति । ऋषभादेवीतरागत्वपरिग्रहयोगयोः साध्यसाधनधर्मयोः संदिग्धो व्यतिरेकः ।
इसमें वैधोदाहरण
जो वीतराग होता है उसके परिग्रह और श्राग्रह नहीं होता । जैसेऋपभ श्रादि । ऋषभ आदि के साध्य धर्म अवीतरागत्व और साधन धर्म परिग्रह और प्रामह के योग में व्यतिरेक संदिग्ध है।
न्याय विन्दु, की उपरोक्त पंक्तियों से यह प्रकट है कि यदि प्राचार्य धर्मकीर्ति जैन धर्म का आदि उपदेष्टा भगवान महावीर को मानते तो वह उनके पूर्व ऋषभ देव का नाम न रखते। इतना ही नहीं, दूसरे उदाहरण में तो वह भगवान् महावीर के नाम को भी उड़ा कर यह प्रकट करते हैं कि उनकी दृष्टि में जैन धर्स के आदि उपदेपा भगवान् ऋषभ देव ही हैं।
यहां यह वात ध्यान रखने की है इस उदाहरण से धर्मकीर्ति जैन तीर्थंकरों के सर्वज्ञ होने में सन्देह प्रकट करते हैं। वह उनकी सर्वज्ञता का पूर्ण निषेध नहीं करते।