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________________ १५४ प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी भाग्य है। मैं तो उसको वेच चुका। अब मेरा उस पर कुछ भी अधिकार नहीं है । वह साल अव आपका है।" इस प्रकार कह कर सोहनलाल जी ने उस माल को वापिस लेने से साफ इंकार कर दिया। बाद से उस श्रावक ने उस गांठ का माल १५००) में वेचा, जिससे उसे १३००) वचे। माल वेच कर उसने सोहनलाल जी के २००) उसी समय चुका दिये। फिर उसने अपनी पत्नी के पास जाकर उसको सोहनलाल जी के द्वारा १३००) का लाभ होने का समाचार सुनाया। इस समाचार को सुन कर सारे परिवार में खुशी की लहर दौड़ गई। इसके कुछ दिनों बाद रक्षाबंधन का त्यौहार था। इस अवसर पर सोहनलाल जी ने उसके सारे परिवार को अपने घर निमंत्रित किया। घर आने पर सोहनलाल जी ने उसकी धर्मपत्नी से कहा सोहनलाल-बहिन ! क्या तुम मेरी एक अभिलाषा पूर्ण करोगी? बहिन-क्यों भाई ! आपकी अभिलाषा मैं क्यों नहीं पूर्ण करूगी। यह निश्चय है कि आपकी प्रत्येक अभिलाषा पवित्र ही होगी। सोहनलाल-बहिन ! देखना अपने इन शब्दों से पीछे न फिर जाना। बहिन-भाई! मैं ने आज तक कभी भी अपने वचन को भंग नहीं किया है। सोहनलाल-बहिन ! मेरी यह बहुत पुरानी इच्छा है कि तुम्हारे हाथ से अपने हाथ में आज के दिन राखी बंधवाऊ । क्या आप मेरी इस इच्छा को पूर्ण करेंगी ?
SR No.010739
Book TitleSohanlalji Pradhanacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherSohanlal Jain Granthmala
Publication Year1954
Total Pages473
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size18 MB
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