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________________ स्वधर्मीवत्सलता १४६ ___४. अन्य मिथ्याष्टियों के चमत्कार प्रादि देख कर धर्म से विचलित न होना अमूद दृष्टि अग है। ५. साधर्मी भाइयों के दोषों पर दृष्टि न रखते हुए उनके गुणों • को ग्रहण करना सम्यक्त्व का उपगूहन अग है। ६. धर्म से विचलित श्रात्मानों को धर्म में दृढ़ करना स्थितिकरण अंग है। ७. साधर्मी जनो के साथ ऐसा प्रेम करना जैला गौ अपने बच्चे से करती है इसे स्वधर्मीवत्सलता अथवा वात्सल्य अंग कहते हैं तथा ८. ऐसे कार्य करना, जिन से धर्म, जाति तथा देश का गौरव हो इसे सम्यक्त्व का प्रभावना अंग कहा जाता है। सम्यक्त्व के इन आठ अंगों में स्वधर्मीवत्सलता एक प्रधान अंग है। किन्तु इस अंग का पालन करना बहुत सुगम नहीं है। जो उदार हो, जिसके हृदय में विशालता, धर्मप्रियता तथा धर्म में दृढ़ रहने का निश्चय हो, जिसकी दृष्टि क्षुद्र न हो तथा जो गम्भीर हो ऐसे लोकोत्तर गुणों के धारक व्यक्ति ही स्वधर्मी वत्सलता का पालन कर सकते हैं। आज संसार में धर्मात्मा तो सहस्रों हैं, किन्तु उन में ऐसे महापुरुष बहुत कम हैं, जिनका धर्मात्माओं के साथ गोवत्स के समान प्रेम हो तथा जो उनको सुख पहुंचाने के लिए अपना सर्वस्व समर्पण करने के लिये तय्यार हों। आज विषयवासना के वशीभूत होकर, अहंकार के जाल में फंस कर अथवा मायामोह में आसक्त हो कर तो मनुष्य लाखों तथा करोड़ों रुपये खर्च कर देता है तथा अनेक प्रकार की विडम्बनाएं सहता है, किन्तु धमोत्माओं की सहायता करने के लिये, उनकी आर्थिक सहायता करने के लिये, वह लेशमात्र भी
SR No.010739
Book TitleSohanlalji Pradhanacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherSohanlal Jain Granthmala
Publication Year1954
Total Pages473
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size18 MB
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