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प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी परित्याग कर आप श्री के चरणों में दुःखमोचिनी भगवती दीक्षा अंगीकार की है उसी प्रकार में भी करूं, किन्तु गुरुवर ! मैं चाहता हूं कि अभी मैं आप श्री के समक्ष गृहस्थ के द्वादश व्रतों को अंगीकार करू।
सोहनलाल जी के यह वचन सुन कर आचार्य महाराज वोले__ "सोहनलाल ! तुमने अभी अभी युवावस्था में प्रवेश किया है। अभी तुम्हारा विवाह भी नहीं हुआ। ऐसी अवस्था में क्या तुम अपनी सम्पूर्ण श्रायु भर इन नियमों का पूर्णतया पालन कर सकोगे ?"
इस पर सोहनलाल जी ने उत्तर दिया
"गुरुदेव ! जिस व्यक्ति पर आप जैसे महापुरुपकी कृपाप्टि हो तथा द्वादशव्रतधारी माता पिता तथा मामा मामी के समागम का जिसे सुयोग मिला हुआ हो वहां इन व्रतों का श्रायुपर्यंत पालन करना असम्भव नहीं है। इसके अतिरिक्त गुरुदेव ! यद्यपि मैं आपका सबसे छोटा शिष्य हूं, किन्तु मैं व्रतों के पालन मे पीछे नहीं हटूंगा। मैं किए हुए प्रण की रक्षा प्राण देकर भी करूगा । प्राण जा सकते है, किन्तु प्रण नहीं जावेगा।"
सोहनलाल जी के मुख से इस उत्तर को सुन कर गुरु महाराज को बड़ी प्रसन्नता हुई। उनको विश्वास हो गया कि सोहनलाल को न केवल व्रत ग्रहण करने की तीव्र लालसा है, वरन् उसमे उनका पालन करने योग्य अटल धैर्य भी है। तव वह सोहनलाल से बोले
"अच्छा सोहनलाल ! हम तुम्हारी व्रत ग्रहण करने की तीव्र लालसा को देख कर तथा उनका पालन करने के लिए तुम्हारे उत्साह को देख कर तुम को श्रावक के वारह व्रत देते है।