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प्रधानाचार्य श्री सोहनलाल जी
बर्तन में भोजन नहीं करते, न किसी का न्योता मानते हैं यदि उनके लिये कोई खाने पीने की वस्तु बनाई जावे या कोई उनके पास ले आवे तो वह उसको कभी नहीं लेते। यह किसी को भी गाली नहीं देते। कितना ही संकट आने पर भी वह धर्म को नहीं छोड़ते। जो कुछ जप तप वह करते है वह पाप कर्मों को नष्ट करने के लिये ही करते हैं। वह ऐसा कोई कार्य नही करते, जिससे उनके सदाचार मे कमी आवे |
मित्र- आपके साधुओं की और मव वाते तो ठीक हैं, किन्तु वह जो स्नान नहीं करते यह वात मेरी समझ में नहीं श्राती ।
सोहनलाल - क्यों, यह बात समझ मे क्यों नहीं आई ? मित्र - स्नान न करने से अपवित्रता बढ़ती है और शरीर मैला रहता है ।
सोहनलाल - भाई ! शरीर की मलिनता का क्या ठिकाना ? इसको कितना भी सावुन अथवा जल से धोया जावे यह शुद्ध नहीं होता । आपको यह विचारना चाहिए कि यह शरीर किस वस्तु का बना हुआ है । यह शरीर रक्त, मांस, पित्त, मल, मूत्र, थूक तथा पीप जैसी गंदी वस्तुओं से भरा हुआ है । इसमें कौनसी वस्तु अच्छी है ? इसके ऊपर खाल की एक चादर मात्र ढकी हुई है। यदि उसे उतार दिया जावे तो घृणा के सारे इस शरीर को देखना भी कठिन हो जावे। इसके विषय मे एक कवि ने कहा है
देख मत भूलो बाहिर की सफाई पर । वर्क सोने का चिपटा है सफाई पर ||
ऐसी अवस्था मे शरीर किस प्रकार पवित्र वन सकता है ? इसके अतिरिक्त जैन साधु ऐसा कोई सांसारिक कार्य भी नहीं