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________________ ११६ मित्रों का सुधार में अपने सभी सहपाठियों को एक प्रीति भोज में निमंत्रित किया। इस भोज में उसके सभी बालमित्र समय पर पहुंच गए। इन बालकों मे हमारे चरित्रनायक श्री सोहनलाल जी भी सम्मिलित थे। आतिथेय ने सभी निमंत्रित वालकों को बड़े प्रेम से भोजन कराया। भोजन के पश्चात् वह सब के सब एक सजे सजाए कसरे मे बैठ कर आमोद प्रमोद करते हुए वार्तालाप करने लगे। इस वार्तालाप में उत्तीर्ण हुए विद्यार्थियों को बधाई देते हुए एक विद्यार्थी बोला "भाई! तुम्हें बधाई है। मैं ने तो इस वर्ष तुम से भी अधिक परिश्रम किया था, किन्तु क्या किया जावे? भगवान् की इच्छा ही ऐसी थी कि मैं फेल हो जाऊं।" ___इस पर सभी उसकी हां में हां भरने लगे। किन्तु हमारे चरित्रनायक श्री सोहनलाल जी को उसका यह कथन पसंद नहीं आया और वह उसको सम्बोधित करके कहने लगे सोहनलाल-मित्र ! तुम भूल करते हो। तुमको अपना दोष दूसरों के ऊपर कभी नहीं डालना चाहिये। अपने इन शब्दों के द्वारा तुम भगवान् पर कलंक लगा रहे हो । भला जो भगवान् सच्चिदानन्द स्वरूप, जगत् पिता, दीनबन्धु, अशरणशरण तथा अनाथों के नाथ है ऐसे करुणानिधान भगवान् किसी का बुरा क्यों चाहने लगे ? उनकी क्या तुम्हारे साथ शत्रता है जो उन्होंने तुमको फेल कर दिया ? मित्र ! जिम व्यक्ति का उदाहरण तुम दे रहे हो उसकी बुद्धि की तीव्रता तुम से चौगुनी है। यदि तुम उसके समान सफल बनना चाहते हो तो उस से चौगुनी मेहनत करो। फिर देखें, तुमको उतनी ही सफलना कसे नहीं मिलती ?
SR No.010739
Book TitleSohanlalji Pradhanacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherSohanlal Jain Granthmala
Publication Year1954
Total Pages473
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size18 MB
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