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________________ अद्भ त न्याय ७६ उस समय उसका चेहरा उतरा हुआ था। उसकी ऐसी दशा देखकर सोहनलाल जी ने उसे एकांत मे ले जाकर उससे पूछा सोहनलाल-धारी, आज तुम्हारा चेहरा क्यों उतरा हुआ है ? और तुम आज इतनी देरी करके स्कूल क्यों आए ? इस पर धारी ने उत्तर दिया धारी-भाई, बात यह है कि आज हमारे घर बहुत झगड़ा हो गया था। सोहन-झगड़े का कारण क्या था ? धारी--रात्रि के समय मेरी बहिन के गले का सोने का हार चोरी होगया । हार की चोरी रात्रि के दस बजे बाद की गई है। इससे स्पष्ट है कि कोई बाहिर का आदमी घर में नहीं आया। घर में सभी से पूछ गछ की गई, किन्तु कोई भी हां नहीं भरता। घर में कई एक ने मेरा नाम भी लिया कि धारी ने ही हार की चोरी की है। किन्तु सोहनलाल, मैं तुम्हारी शपथपूर्वक यह बात कहता हूं कि हार मैंने नहीं लिया और न मुझे उसके सम्बन्ध मे कुछ भी पता है। अब भाई तुम्हीं कोई उपाय बतलाओ कि मेरे ऊपर लगा हुआ यह कलंक किस प्रकार दूर हो सकता है। सोहनलाल-क्या तुम्हारे घर में कभी इससे पहिले भी चोरी हुई है ? धारी-हां, कई बार हो चुकी है। किन्तु इतनी बड़ी चोरी अभी तक कभी भी नहीं हुई। जब से यह हार चोरी गया है, तब से तो हमारे घर में भोजन भी नहीं बना है। सोहनलाल-धारी, तुम घबराओ मत । मैं स्कूल के बाद तुम्हारे साथ तुम्हारे घर चलूगा। यदि हो सका तो मैं ऐसा
SR No.010739
Book TitleSohanlalji Pradhanacharya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorChandrashekhar Shastri
PublisherSohanlal Jain Granthmala
Publication Year1954
Total Pages473
LanguageHindi
ClassificationSmruti_Granth
File Size18 MB
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