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जैन पूजांजलि संकरभाव जगायोगे तो, आस्त्रव बध रुकेगा ही।
भाव निर्जरा अपनायी तो, कर्म निजरित होगा ही 41 एक भूल कयों की संगति भव वन में उलझा रही । अग्नि लोह की सगति करके धन की चोटें खा रही निर्वि. ॥७॥ ॐ ह्रीं श्री दर्शनविशुब्यादि षोडशकारणेभ्यो धुप नि. स्वाहा । निज स्वभाव बिन हुई सदा ही अष्टकर्म की जीत ही । महामोक्ष फल पाने का पुरुषार्थ किया विपरीत ही निर्वि ॥४॥ ॐ ह्रीं श्री दर्शनविशुद्धयादि षोडशकारणेभ्यो फल नि स्वाहा । जल फलादि वसु द्रव्य अर्थ का अर्थ कभी आया नहीं । अविचल अविनश्वर अनर्थ पद इसीलिए पाया नहीं।।निर्वि।।९।। ॐ ही श्री दर्शनविशुद्धयादि षोडशकारणेभ्यो अयं नि स्वाहा ।
जयमाला भव्य भावना षोडशकारण विमल मुक्ति निर्वाण पथ। तीर्थकर पदवी पाने का द्रुत गतिवान प्रयाणरथ ॥१॥ रागादिक मिथ्यात्व रहित समकिन हो निज की प्रीतिमय । दोष रहित दर्शनविशुद्धि भावना मुक्ति संगीतमय ॥२॥ मन वच काया शुद्धि पूर्वक रत्नत्रय आराध ले । तप का आदर परम विनय सम्पन्न भावना साध ले॥३॥ पचव्रत सहित शील स्वगुण परिपूर्ण शीलमय आचरण । निरतिचार भावना शीलवत दोषहीन अशरण शरणा॥४॥ शास्त्र पठन गुरु नमन पाठ उपदेश स्तवन ध्यानमय । हो अभीक्ष्ण ज्ञानोपयोग भावना हृदय मे ज्ञानमय ।।५।। मित्र भ्रात पत्नी सुत आदिक और विषय ससार के । इनमे पूर्ण विरक्ति रखे सवेग भावना धार के ॥६॥ हम उत्तम मध्यम जघन्य सत पात्रों को पहिचान लें। चार दान दे नित्य शक्तितपस्त्याग भावना जान लें।।७।। मुक्ति प्राप्ति हित आत्म आचरण शक्ति भक्ति अनुरूप हो । द्वादश विधि से तपश्चरण भावना शक्ति तप रूप हो ॥८॥