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श्री षोडशकारण पूजन मात्म स्वरुपवलंबन मावों, से विभाव परिहर करो ।।
रत्नत्रय का वैभव पाकर, पव दुख सागर पार करो ।। पूर्ण ज्ञान कैवल्य अनन्तानत गुणों का वास हो । तीर्थकर पर दाता सोलहकारण धर्म विकास हो । ॐ ह्रीं श्री दर्शनविशुद्धयादि षोडशकारणेभ्यो षोडश कारणानि धर्म अत्र अवतर अवतर संवौषट् *ही श्री दर्शनविशुद्धयादि षोडशकारणे यो घोड़श कारणानि धर्म अत्र तिष्ठ तिष्ठ ठ ठ, ही श्री दर्शनविशुद्धयादि षोडशकारणेभ्यो षोड़श कारणानि धर्म अत्र मम् सनिहितो भव भव वषट । जल की उज्जवल निर्मलता से मिथ्यामैल न धो सका । आकुलतामय जन्म मरण से रहित न अब तक हो सका ।। निर्विकल्प अविकल सुखदायक सोलहकारण भावना । जय जय तीर्थंकरपद दायक सोलहकारण भावना ॥१॥ ॐ ही श्री दर्शनविशुद्धयादि षोडशकारणेभ्यो जल नि स्वाहा । भाव मरण प्रति समय किया है मैंने काल अनादि से । भव सताप बढाया चलकर उल्टी चाल अनादि से । निर्वि ॥२॥ ॐ ही दर्शनविशुद्धयादि षोडशकारणेभ्यो चन्दन नि स्वाहा । मुक्त नहीं हो पाया अब तक पर भावो के जाल से । यह ससार चक्र मिट जाये धर्म चक्र की चाल से निर्वि ।।३।। ॐ ह्री श्री दर्शनविशुद्धयादि षोडशकारणेभ्यो अक्षत नि स्वाहा । काम वेदना भव पीडामय पर परणति दुखदायिनी । काम विनाशक निज चेतन पद निज परणति सुखदायिनी निर्वि।।४।। ॐ ही श्री दर्शनविशुस्यादि षोडशकारणेभ्योपुष्पं नि स्वाहा । जग तृष्णा की व्याधि हजारों आकुल करती है मुझे ।। क्षथा रोग की माया नागिन भव भव डसती हैं मुझे।ानिर्वि ।।५।। ॐ ही श्री दर्शनविमुत्यादि षोडशकारणेभ्यो नैवेद्य नि स्वाहा आत्मज्ञान रवि ज्योति प्रकाशित हो अब स्वपर प्रकाशिनी । शुद्ध परमपद प्राप्ति भावना तम नाशक भव नाशिनी निवि.॥६॥ ॐही श्री दर्शनविशुद्धयादि गोडसकारणेभ्यो दीपं नि. स्वाहा ।