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श्री धर्मनाथ जिन पूजन रागादिक से मित्र आत्मा का अनुभव ही श्रेष्ठ महान ।
निज की परसे भिन्न जानने की प्रक्रिया भेद विज्ञान ।। ज्येष्ठ शुक्ल की दिव्य चतुर्थी गिरि सम्मेद हुआ पावन । प्राप्त अयोगी गुणस्थान चौदहवाँ कर जा मुक्ति सदन । सिद्धशिला पर आप विराजे गूजीमुक्ति जग मे जच जयधुन । मोक्ष सुदत्तकूट से पाया धर्मनाथ प्रभु ने शुभ दिन ॥५॥ ॐ हीं ज्येष्ठ शुक्ल मोक्षकल्याणक प्राप्ताय श्री धर्मनाथ जिनेन्द्राय अयं नि ।
जयमाला जय जय धर्मनाथ तीर्थकर जिनवर वृषभ सौख्यकारी । केवलज्ञान प्राप्त होते ही खिरी दिव्य ध्वनि हितकारी ॥१॥ गणधर तिरतालिस प्रमुख ऋषिराज अरिष्टसेन गणधर ।। श्रीसुव्रता मुख्य आर्यिका अगणित श्रोता सुर मुनि नर ॥२॥ वीतराग प्रभु परमध्यानपति भेद ध्यान के दरशाए । आर्तरौद्र अरु धर्म,शुक्ल ये चार ध्यान है बतलाए ।।३।। चिन्ता का निरोध करके एकाग्र जिसविषय मे हो मन । रहता है अन्त मुहूर्त तक यही ध्यान का है लक्षणा।४।। आत, रौद्र तो अप्रशस्त है धर्म शुक्ल है प्रशस्त ध्यान । इन चारो के चार चार है भेद, अनेक प्रभेद सुजान ।।५।। आर्तध्यान के चार भेद है इष्ट वियोग, अनिष्ट सयोग । पीडा जनित भेद है तीजा चौथा है निदान का रोग ।।६।। रौद्रध्यान के चार भेद हिंसानदी व मृषानदी । चौर्यानन्दी भेद तीसरा चौथा परिग्रहानन्दी ॥७॥ हिंसा मे आनन्द मानना हिंसानन्दी ध्यान कुध्यान । झूठ माहि आनन्द मानना ध्यान मृषानन्दी दुखखान ।।८।। चोरी मे आनन्द मानना चौर्यानन्दी ध्यान कुध्यान । परिग्रह मे आनन्द मानना परिग्रहानन्दी दुर्ध्यान ।।९।। आर्त ध्यान अरु रौद्र ध्यान तो खोटी गति के कारण हैं । पहिले गुणस्थान में तो यह भव भव का दुखदारुण हैं ॥१०॥