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श्री ऋणदेव जिन पूजन अपनी देह नहीं अपनी तो पर पदार्थ भी सपना ।
मुराद चिप निकाली भूव स्वभाव ही अपना है ।। चैत्र कृष्ण नवमी को ही वैराग्य भाव उर छाया था। लौकान्तिक सर इन्द्रादिक ने तप कल्याण मनाया था ।। पंच महाव्रत धारणा करके पंच मुष्टि कच लोच किया । जय प्रभु ऋषपदवे तीर्थकर तुमने मुनि पद धार लिया ॥३॥ ॐ ही मी चैत्रकृष्णनवमीदिने तपमंगल प्राप्ताय प्रवरदेवाय अर्म नि एकादशी कृष्ण फागुन को कर्म यातिया नष्ट हुए । केवलज्ञान प्राप्त कर स्वामी वीतराग भगवन्त हुए । दर्शन, ज्ञान, अनन्तवीर्य, सुख पूर्ण चतुष्टय को पाया । जय प्रभु ऋषभदेव जगती ने समवशरण लख सुख पाया ।४।। ॐ ह्रीं श्री फागुनवदी एकादशदिनेशानमगल प्राप्ताय ऋषभदेवाय अयं नि । माघ वदी की चतुर्दशी को गिरि कैलाश हुआ पावन । आठों कर्म विनाशे पाया परम सिद्ध पद मन भावन । मोक्ष लक्ष्मी पाई गिरि कैलाश शिखर, निर्वाण हुआ । जय जय ऋषभदेव तीर्थकर भव्य मोक्ष कल्याण हुआ ।।५।। ॐ ही श्री माधवदी चतुर्दश्याम महामोक्षमंगल प्राप्ताय ऋषभदेवाय अयं नि ।
जयमाला जम्बूदीप सु भरतक्षेत्र मे नगर अयोध्यापुरी विशाल । नाभिराय चौदहवे कुलकर के सुत मरुदेवी के लाल ।।१।। सोलह स्वप्न हुए माता को पन्द्रह मास रत्न बरसे । तुम आये सर्वार्थसिद्धि से माता उर मंगल सरसे ॥२॥ मति भुत अवधिज्ञान के थारी जन्मे हुए जन्म कल्याण । इन्द्रसरों ने हर्षित हो पाण्डुक शिला किया अभिषेक महान ॥३॥ राज्य अवस्था में तुमने जन जन के कष्ट मिटाए थे । असि, मसि, कृषि, वाणिज्य, शिल्प, विद्याषट्कर्मसिखाये थे ॥४॥ एक दिवस जब नृत्यलीन सुरि नीलांजना विलीन हुई। है पर्याय अनित्य आयु उसकी पल भर में क्षीण हुई ।।५।।