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________________ १७२ जैन पूजांजलि शवात्मसर्व प्रकास का निश्चय परम पुरुषार्थ है। घनघाति कर्मे विनाश का आचरण ही परमार्थ है ।। समकित चरु करो प्रदान मेरी भूख मिटे । भव भव की तृष्णा ज्वाल उर से दूर हटे ।जय ऋषभ देव ।५।। ॐ ह्रीं श्री ऋषभदेवजिनेन्द्राय सुधारोगविनाशनाय नैवेद्य नि. । समकित दीपक की ज्योति मिथ्यातम भागे । देखं निज सहज स्वरुप निज परिणति जागे ।।जय ऋषभ देव ।।६।। ॐ हीं श्री ऋषभदेव जिनेन्द्रायमोहान्धकार विनाशनाय दीपं नि । समकित की धूप अनूप कर्म विनाश करे । निज ध्यान अग्नि के बीच आठों कर्मजरे ।जय ऋषभदेव ॥७॥ ॐ ही श्री ऋषभदेव जिनेन्द्राय अष्टकर्म विध्वंसनाय धूप नि । समकित फल मोक्ष महान पाऊँ आदि प्रभो । हो जाऊसिद्ध समान सुखमय ऋषभ विभो ।जय ऋषभ देव ।।८।। ॐ ही श्री ऋषभदेव जिनेन्द्राय महा मोक्ष फल प्राप्तये फलं नि स्वाहा ।। वसु द्रव्य अर्घ जिनदेव चरणों में अर्पित । पाऊअनर्घ पद नाथ अविकल सुख गर्भित ।जय ऋषभ देव ॥९॥ श्री पंचकल्याणक शुभ अषाढ कृष्ण द्वितीया को मरदवी उर में आये । देवों ने छह मास पूर्व से रत्न अयोध्या बरसाये ।। कर्म भूमि के प्रथम जिनेश्वर तज सरवार्थसिद्ध आये । जय जय ऋषभनाथ तीर्थकर तीन लोक ने सुख पाये ॥१॥ ॐ ह्रीं श्री अषाढकृष्णद्वितीया दिनेगर्भमगल प्राप्ताय ऋषभदेवाय अयं नि । चैत्र कृष्ण नवमी को राजा नाभिराय गृह जन्म लिया । इन्द्रादिक ने गिरि सुमेरु पर क्षीरोदधि अभिषेक किया ।। नरक त्रिर्यंच सभी जीवो ने सुख अन्तर्मुहुर्त पाया । जय जय ऋषभनाथ तीर्थकर जग में पूर्ण हर्ष छाया ॥२॥ ही श्री चैत्रकृष्णनवमीदिने जन्ममगल प्राप्ताय ऋषभदेवाय अयं नि.
SR No.010738
Book TitleJain Punjanjali
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajmal Pavaiya
PublisherRupchandra Sushilabai Digambar Jain Granthmala
Publication Year1992
Total Pages321
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size11 MB
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