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(६४) मोक्षगति कभी नहीं पासक्ता । इसी वातकी खामीसे कई हमारे जैन भाइ नयी रोशनीके भवसमुद्र में रुलानेवाली सोसायटीयोंमें दाखिल होते चले जाते हैं।
उनको प्रथम सोचना चाहिये कि हमारे परमें किस वातकी खामी है ? प्यारों वीतराग देवके अलूट खजानेये खामी तो किसीभी वातकी नहीं है. हाँ ! देशक उनके ए सकादकी खामी तो जरूर मानी जायगी; जो कि अपने सद्शालोंके बगैरही मनन किये झट दूसरे पंधमें होजाते हैं। मगर उनको चाहिये कि प्रथम एतकाद रखें। क्योंकि बगैर एतकादके धार्मिक इल्म नहीं पासक्ताहै। धार्मिक इल्मकी बात तो दूर रही मगर संसारिक इल्मभी नहीं पासक्ताहै । मसलन देखिये एक लडकेको मदरसेमें बैठाया है, मास्टर उस्को सिखा रहाहै कि देख,लडके ! क ऐसा होताहै इसके बाद दूसरा अक्षर ख ऐसा होताहै। यहांपर अगर वो लडका एतकादको छोड कर मास्टरसे झघडा करने लग जावे कि मास्टर साहिब ! जिस्को आप ख मानते हैं उस्को में क मान लूं और पेश्तरके ककोंमें पीछेका ख मानलं तो क्या हरकतहै ? मतलब उस्ने कहाकि ख-की आकृतिवाला-क-बनाया जाये और ककी आकृति जैसा-ख-बनाया जाये तो क्या हर्ज मर्जकी बातहै ? देखिये, यहांपर क-ख-के मामले में हि एतकात रहित होकर