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(१६) देवरि महाराजने प्रमाणनयतत्त्वलोकालंकारमें वयान कियाहै । तथाहिः-- साधक वाधक प्रमाणाभावाद नव स्थितानेक
कोटि संस्पर्शि ज्ञानं संशयः मतलव जिस ज्ञानको साधक व वाधक इन दोनों प्रमाणामेंसे कोइभी लागु न पड सके, ऐसा अवस्थाहीन अनेक कोटी ( दोकोटी ) को अवलंवन न करनेवाला ज्ञानहो उस्को संशय कहतहैं । जैसे दूरसे ढूंठको देखकर भ्रांति पडती है कि यह क्या पुरुषहै। अथवा ढूंठहै । इस अवस्थामें उभय कोटी रहती है और उसवक्त कोइ नियामक प्रमाण नहीं होता । सो यहांपर "अहं सुख मतुभवामि" इस जगहपर उभय कोटीका अभाव होनेसे संदेहभी नहींहै, और इस प्रकारके प्रत्ययको अनालंवन माननाभी ठीक नहीं । क्योंकि इसको अनालंबन मानोगे नो फिर रूप ज्ञानरस ज्ञान वगेरेको भी अनालंबन मानना पडेगा।
नास्तिक-" अहं सुख मनुभवामि " इस किस्मके प्रत्यय (ज्ञान)का आलम्बन करके हम शरीरको मान लेवें तो क्या हर्जहै ?
आस्तिक-हर्ज क्यों नहीं ! शरीर किसी सूरतभी आलंबन नहीं होसत्ता । क्योंकि इस प्रकारके अनुभवकी पैदायश वहारके कारणोंकी अपेक्षा वगेर आन्तरिक वृत्तिके व्यापारसे