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( १७८) इसमेंसे उत्तमोत्तम पुरुष धर्ममेही प्रत रहते हैं. उत्तम पुरुप भावि भाव विचारकर विकार पाते नही. मध्यम पुरुप अश्रुपात करके शोक दूर करते. हैं परन्तु अधम मनुष्य ही कूटते हैं.
ओमिति पंडिता कुर्युरश्रुपातंच मध्यमाः अधमाश्च शिरोघातं शोके धर्म विवेकिनः
अर्थ-पंडित पुरुष शोकमें यह समझते हैं कि जो होनेका है सो तो होगाही, फिर चिन्ता करनेकी क्या जरूरत ? मध्यम पुरुष अश्रुपात करते हैं और अधम पुरुष शिर कूटते हैं परन्तु विवेकी पुरुष शोकमें धर्मही करते हैं
हालकी रूढी. पाठक गण! यह तो अवश्यही कबूल करेंगे कि हिन्दुस्थान भरमें मालवी, मारवाड़ी, गुजराती स्त्री जैसे अमर्यादा रीतिसे कूटची है और रोती हैं ऐसा आज दिनतक सुननेमें नहीं आया, जो कोई चालके वास्ते. अपने जैनवांधवोंको शर्म हो, और दूसरी सुधरी हुई कोमके आंखको आवरुका कलंक लगता हो तो मरनेके वाद रोने कूटनेका बहोत बुरा रिवाज है. कदाचित कोई ऐसा प्रश्न करे कि बहोत दिनोंसे जड़ मूल फैला कर धूल धानो करने वाला जैन प्रजामें कायम होकर उनको रुला २ कर दुःख देता है तो हो ? हम कहेंगे के वो