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( १५४ ) धर्मकी मुख्यता और त्रिवर्ग साधनकी कितनी अगत्यताहै उस बावद सोममभाचार्य सिन्दूरसकरनये ननाते हैं कि । त्रिवर्ग संसाधनमन्तरेण, पशोखिायुर्विकलं नरस्य । तत्रापि धर्म प्रवरं वदन्ति, नतविनायद् भवतीर्थकाम।। ___(धर्म, अर्थ और कामरूप ) तीन वर्गके साधन बिना मनुष्यका आयुष्य पशुके आयुष्य सा निष्फल है. इन तीनों के घावद धर्मको श्रेष्ठ कहते हैं कारण कि उस (धर्म) विना अर्थ और काम नहीं हो सका।
धर्म:-इस शब्दका अर्थ बहुत विस्तारवाला है तोभी " यतो अभ्युदयनिः श्रेयस सिद्धिः स धर्मः" इतनाही नही, अभ्युदय और मोक्षकी प्राप्ती हो वह धर्मविन्दु ग्रंथकी टीका कहाहै, धर्मका मूल दयाहै. शोककारक बनावके समूहमें मृत्यु समान दूसरा कोई वनाव शोकप्रद नहीं, एक तो मनुप्यका मनुष्य जाता और फिर जहाँ शोकाग्निमें डुवे उसके स्नेहीयों की छाती फाटती है, रुदन करते हैं, उनका हृदय भेदक विलाप सुनके पत्थर सरीखा हृदय पिघले विन। नही रहता उस समय औसारीमें बैठकर मिष्टान्न वगैरः उडाना यह कितनी वडी दयाकी लगनी कहलाती है ! मृत्युके बाद जीमनेको जाना यह मार्गानुसरीके साधारण गुणोंको मलीन करता है, कारण कि खानेके लोभी शोकजनक और शरमसे भरे हुए मृत्युके बादका जीमनवार