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________________ ( ११६ ) मेरे मध्यस्थ ara ! अवी मैंने नां तत्त्वकी सिरफ नाम मात्र व्याख्या कि है इनके भेदाभेदका मैंने बिलकूल खयाल नही किया है, क्योंकि मात्र इतने स्वरूपसेहि निबन्ध अपनी हदको उल्लंघन करने लगा हैं, तो फिर इनका विस्तार में किस तरह लिख सक्ता हूं ? प्रिय मित्रो ! मैं एक मन्दमति पुरुष हूं, फिरभी अगर नव तत्त्वका स्वरूप लिखने लगूं तो तीनस पृष्टकी एक किताब बनानेकी मुझे दरकार रहती है, अगर कोइ गीतार्थ महाराज अपनी लेखनीद्वारा इन विषयोंको परिस्फूट करना चाहे तो मैं नहीं कह सक्ताकि सहस्त्र पृष्ट तकभी उनकी लेखनी रूक सके ! बतलाइए ! अब इतने स्वरूपको इस छोटीसी इवारत में मैं कैसे लासक्ता हूं ? इस लिये अकलमंदोको इसाराही काफी है इस वातको याद कर सिरफ एक इसाराहि किया है कि बाकी मतों में जैन मत जितना तत्त्व ज्ञान नहीं है. इस लिये दीगर मजहबवालोंकों अपने शास्त्रोंकी तरह जैन शास्त्रोंकोभी बडे शोख से देखने चाहिये ! ताके काच हीरेकी अच्छी तरह से परिक्षा हो सके ! देखिये ! एक आर्य महाशयने खंडनकी बुद्धिसे जैन शास्त्रोंका अवलोकन करना शुरु कियाथा मगर ज्युं ज्युं पराकोटिके ग्रन्थ देखते गये त्युं त्युं छिन्न संदेह होते गये, अखीरमें एसे परम श्रद्धालु जैन वन गये हैं कि जिनोने आर्य मत खंडनके लिये कई ट्रेक्ट जारी किये हैं, मिय मित्रो ! इस तरहसे आपभी उत्तम शा १
SR No.010736
Book TitleJain Nibandh Ratnakar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKasturchand J Gadiya
PublisherKasturchand J Gadiya
Publication Year1912
Total Pages355
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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