________________
११. क्षीण-निद्रानिद्रा, १२. क्षीण-प्रचला, १३. क्षीणप्रचलाप्रचला, १४. क्षीण-स्त्यानगृद्धि, १५. क्षीण-सातावेदनीय, १६. क्षीण-असातावेदनीय, १७. क्षीण-दर्शन-मोहनीय, १८, क्षीण-चारित्रमोहनीय, १९. क्षीण-नैरयिक-ग्रायु, २०. क्षीण-तिर्यञ्च आयु, २१. क्षीण-मनुष्यायु, २२. क्षीणदेवायु २३, क्षीण-उच्चगोत्र, २४. क्षीण नीचगोत्र, २५, क्षीण शुभ-नाम, २६. क्षीण-अशुभ-नाम, २७. क्षीण-दानान्तराय, २८. क्षीण लाभान्तराय, २९. क्षीण-भोगान्तराय, ३०. क्षीण-उपभोगान्तराय, ३१. क्षीण-वीर्यान्तराय । सिद्धों में क्या-क्या नहीं
संसारी जीवों में तीन प्रकार के गुण होते है-स्वाभाविक, वैभाविक और पौद्गलिक । आत्मा का जो अपना स्वरूप है वह स्वाभाविक है। जो आत्मा में क्रोध आदि विकार एवं अवगुण हैं वे सब वैभाविक कहे जाते हैं । जो गुण इन्द्रिय-ग्राह्य हैं, वे सब पौद्गलिक माने जाते हैं। इनमें वैभाविक और पौद्गलिक ये दो प्रकार के गुण सिद्धों में नहीं होते, क्योकि कर्मों के ऐकान्तिक और प्रात्यन्तिक क्षय होने से इनकी सदा के लिए निवृत्ति हो जाती है और स्वाभाविक गुणों का उद्भव मदा-सदा के लिये हो जाता है । सिद्ध भगवन्तों में पांच संस्थान, पांच वर्ण, पांच रस, दो गन्ध आठ स्पर्श, तीन वेद, काय, संग, और रुह (पुनर्जन्म) का क्षय हो जाता है । इनके क्षय से उनमें स्वाभाविक गुणों की नमस्कार मन्त्र ]
[४५