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१३. गोसीस चंदणमिव सीयले सुगधे य-गोशीर्ष चंदन की तरह साधु शान्त, शीतल तथा शील सुगंध से पूर्ण होते हैं।
१४. हरयो विव समियभावो-हवा न चलने से जैसे जलाशय में पानी की सतह सम रहती है, वैसे ही साधु भी समभाव वाले होते हैं। मान और अपमान में भी उनके विचारों में चढ़ाव-उतार नहीं होता है।
१५. उग्घोसिय-सुनिम्मल व आयसमंडलतलं पागडभावेण सूद्धभावे-सुकोमल वस्त्र से साफ किये हुए दर्पण में जैसे प्रतिबिम्ब स्पष्ट दिखाई देता है, वैसे ही साधु के जीवन-दर्पण में उसके शुद्ध भाव स्पष्टतया प्रतिबिम्बित होते हैं । माया-रहित होने से उसके मानसिक भाव प्रति विशुद्ध होते हैं।
१६. कुंजरोव्व सोंडीरे-कर्म-शत्रुओं की सेना को पराजित करने के लिये साधु हाथी के समान बलशाली होते हैं।
१७. वसभोव्व जायत्थामे-अंगीकृत महावतों का भार वहन करने में साधु समर्थ वृषभ के समान होते हैं ।
१८ सीहे वा जहा मिगाहिवे होइ दुप्पधरिसेजैसे मृगाधिपति सिंह अकेला ही अजेय होता है, वैसे ही साधु भी कर्मों पर विजय पाने में अकेला ही अजेय होता है । नमस्कार मन्त्र ]
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