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अनुमोदन भी नहीं करते।
२०. अप्काय-जल-काय भी जीव रूप है । प्रोस, बर्फ, प्रोले, फुहार, धुन्ध, कूप, नदी, सरोवर, नल, झरना, झील इत्यादि जलाशयों का पानी सचित्त ही होता है। जो जल स्वकाय-परकाय के द्वारा अचित्त हो गया है वह जल प्रासुक जल कहलाता है। गर्म जल, फिल्टर किया हुआ जल, नमक और मीठे से मिश्रित जल, भस्म एवं धने से मिश्रित इत्यादि प्रकार का जल भी प्रासुक कहलाता है। शेष सब सचित्त जल अप्काय हैं । अपकीय की हिंसा करता हा प्राणी छहों की हिंसा करता है। अपकाय की हिंसा साधु न स्वयं मन-वाणी और काय से करते हैं, न दूसरे से हिंसा कराते हैं और न अप्काय की हिंसा करनेवाले की अनुमोदना ही करते हैं।
२१. तेजस्काय-अप्काय की तरह तेजस्काय भी सचेतन है। जिन प्रमाणों से जीव सामान्य की सिद्धि होती है, वे ही प्रमाण अग्नि को भी सचेतन सिद्ध करते हैं । तेजस् में उष्णता, प्रकाश और क्रिया करने की शक्ति है । लकड़ी की अग्नि, उपलों या मेंगनों की अग्नि, कोयले की अग्नि, घास की अग्नि, गैस की अग्नि, बारूद, आतिशबाजी एवं फुलझड़ी की अग्नि, धमन भट्टी में पिंघलाई हुई गरम धातु, बिजली, उल्का, प्राकाश से गिरते हुए तेजपुंज, इत्यादि सभी अग्निरूप तेजस्काय संचित अग्नि के ही भेद हैं । यह सभी प्राणियों का
षष्ठ प्रकाश