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हम सुकोमल, कठोर, हल्का, भारी, शीत, उष्ण, रूक्ष, स्निग्ध आदि का ज्ञान प्राप्त करते हैं, वह स्पर्शनेन्द्रिय है । शरीर की त्वचा को ही स्पर्शनेन्द्रिय कहते है । ज्ञान प्राप्त करना असंयम नहीं है, ज्ञात वस्तुओं पर राग-द्वेष करना प्रसंयम है । राग-द्वेष का किसी भी स्पर्श में अवतरण न होने देना स्पर्शनेन्द्रिय - निग्रह है ।
जो साधक पांचों इन्द्रियों का निग्रह कर लेता है। इष्ट र प्रनिष्ट शब्द सुनकर भी सुरूप और कुरूप को देखकर भी, सुगन्ध और दुर्गन्ध को सूंघ कर भी, अनुकूल और प्रतिकूल रस को चख कर भी तथा इष्ट और अनिष्ट पदार्थ को छूकर भी, उस पर न तो आसक्ति करता है और न ही उससे घृणा करता है, वही साधु है और उसी में वन्दनीय साधुता है । जितेन्द्रिय व्यक्ति ही कषायों से मुक्ति पा सकता है और वही महाव्रतों का आराधक भी हो सकता है ।
कषाय-विवेक
इन्द्रियों का निग्रह बिना कषाय- विवेक के नहीं हो सकता । कषायों का सर्व प्रथम प्रभाव मन पर ही पड़ता है, उसके बाद उनकी छाया इन्द्रियों पर पड़ती है तथा रागद्वेष का आकर्षण - विकर्षण होने लगता है । जिस भूमिका में पहुंचकर साधक - मन आकर्षण - विकर्षण से रहित हो जाता
है, उसी को विवेक कहते है, अतः अब कषाय-विवेक का विवेचन किया जाता है |
नमस्कार मन्त्र ]
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