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सिद्धत्व की प्राप्ति के अतिरिक्त कुछ शेष नही रह जाता।
'अरिहन्त' को नमस्कार किया गया है-ऋषभदेव को नहीं, अजितनाथ को नहीं, महावीर को नहीं, क्योंकि जैन दृष्टि मे विकार-मुक्त होकर जैनेतर वेषयुक्त साधक भी तो अरिहन्त हो चुके है, अत: अरिहन्त को नमस्कार सर्वस्पर्शी विराट् नमस्कार है।
'अरिहं' (ग्रह)में सर्व प्रथम जो 'अ' अक्षर है बह ध्वनि का प्रादि स्रोत है और वह पृथ्वी-तत्त्व का सूचक माना गया है । 'र' यह अग्निबीज है, इस अक्षर की ध्वनि तेजस् तत्त्व को जागृत करती है और 'ह' यह आकाश-बीज है । इस प्रकार 'अरिहं' का उच्चारण एक यान्त्रिक प्रक्रिया से सम्बद्ध ध्वनि-प्रक्रिया है जो साधक आत्मा को पृथ्वी से मुक्त करती है, तेज से संयुक्त करती है और आकाश अर्थात् लोक की सीमा तक पहुंचाती है। इस प्रकार साधक अपनी विराट् सत्ता से परिचित हो जाता है ।
___'अ' का उच्चारण कण्ठ-विवर को खोल देता है, 'र' का उच्चारण मूर्धा मे कम्पन जागृत कर ध्वनि अर्थात् मस्तिष्क में केन्द्रित विद्य त-धारा को कम्पित करता है और फिर 'ह' के उच्चारण के साथ उस विद्य त्-धारा के प्रवाह के साथ आन्तरिक विकारों को कण्ठ-नलिका के खुले प्रयोग द्वारा बाहर निकाल देता है।
'अरिहं' छन्दशास्त्र के अनुसार यह सगण है और