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प्राकृत साहित्य का इतिहास समणे निग्गंथे फासु-एसणिज्जेणं असणपाणखाइम-साइमेणं, वस्थ-पडिग्गह-कंबल-पायपुंछणेणं, पीठ-फलग-सेज्जासंथारएणं, ओसह भेसज्जेणं पडिलाभेमाणा अहापडिग्गहिएहिं तवोकम्मे हिं अप्पाणं भावमाणा विहरति ।
-तुंगिया नगरी में बहुत से श्रमणोपासक रहते थे। वे धनसम्पन्न और वैभवशाली थे। उनके भवन विशाल और विस्तीर्ण थे, शयन, आसन, यान, वाहन से वे सम्पन्न थे, उनके पास पुष्कल धन और चाँदी-सोना था, रुपया व्याज पर चढ़ाकर वे बहुत-सा धन कमाते थे । अनेक कलाओं में निपुण थे । उनके घरों में अनेक प्रकार के भोजन-पान तैयार किये जाते थे, अनेक दास-दासी, गाय, भैंस, भेड़ आदि से वे समृद्ध थे। वे जीवअजीव के स्वरूप को भली भाँति समझते और पुण्य-पाप को जानते थे, आस्रव, संवर, निर्जरा, क्रिया, अधिकरण, बंध और मोक्ष के स्वरूप से अवगत थे । देव, असुर, नाग, सुवर्ण, यक्ष, राक्षस, किन्नर, किंपुरुष, गरुड़, गंधर्व, महोरग आदि तक उन्हें निर्ग्रन्थ प्रवचन से डिगा नहीं सकते थे। निर्ग्रन्थ प्रवचन में वे शंकारहित, आकांक्षारहित और विचिकित्सारहित थे। शास्त्र के अर्थ को उन्होंने ग्रहण किया था, अभिगत किया था और समझ-बूझकर उसका निश्चय किया था। निर्ग्रन्थ प्रवचन के प्रति उनका प्रेम उनके रोम-रोम में व्याप्त था। वे केवल एक निर्ग्रन्थ प्रवचन को छोड़कर बाकी सबको निष्प्रयोजन मानते थे। उनकी उदारता के कारण उनका द्वार सबके लिये खुला था। वे जिस किसी के घर या अन्तःपुर में जाते वहाँ प्रीति ही उत्पन्न करते । शीलव्रत, गुणव्रत, विरमण, प्रत्याख्यान, प्रोषध और उपवासों के द्वारा चतुर्दशी, अष्ठमी, अमावस और पूर्णमासी के दिन वे पूर्ण प्रोषध का पालन करते । श्रमण निर्ग्रन्थों को प्रासुक और ग्राह्य अशन, पान, खाद्य, स्वाद्य, वस्त्र, पात्र, कंबल, पादपोंछन: ( रजोहरण ), आसन, फलक (सोने के लिये काठ का तख्ता), शय्या, संस्तारक, औषध और भेषज से