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૭૮૪ प्राकृत साहित्य का इतिहास
यश के पीछे दौड़ने वाले जड़ पुरुषों का गुगों में अनुगग नहीं होता। चन्द्रकांत नगि चन्द्रमा को देखकर ही पिघलता है, प्रिया का मुन्च देखकर नहीं।
(निदर्शना अन्नदार का उदाहरण ) होन्तपहिअस्स जाआ आउच्छणजीअधारणरहल्सम् । पुच्छन्ती भमइ घरं घरेसु पिअविरहसहिरीआ॥
(स० के०५, २४३; गा० स०१, ४७; दशरूपक १, पृ० २६९) प्रिय के भावी विरह की आशङ्का से दुखी पथिक का पली, पड़ोस के लोगों से, पति के चले जाने पर प्राणधारण के रहस्य के बारे में पूछती हुई घर-घर घूम रही है।
हंतुं विमग्गमाणो हन्तुं तुरिअस्स अप्पणा दहवअणं । किं इच्छसि काउंजे पवअवइ ! पिअंति विपियों रहुवइणो॥
(स० के० ४, १५२; सेतु० ४,३६) हे सुग्रीव ! रावण का वध करने की इच्छा करता हुआ तू, स्वयं रावण का वध करने की शांघ्रता करने वाले राम को यह प्रिय है, ऐसा मान कर तू उनका अप्रिय ही कर रहा है । (आक्षेप अलङ्कार का उदाहरण )
हंसाण सरेहि सिरी सारिजइ अह सराण हंसेहिं । अण्णोण्णं चि. एए अप्पाणं नवर गाति॥
(काव्या० पृ० ३५७, ५५४; काव्यप्रकाश १०, ५२७) हंसों की शोभा तालाब से और तालावों की हंसों से बढ़ती है, वास्तव में दोनों ही एक दूसरे के महत्त्व को बढ़ाते हैं । ( अन्योन्य अलकार का उदाहरण )
हंहो कण्णुल्लीणा भणामि रे सुहअ ! किम्पि मा जूर। . णिज्जणपारद्धीसु कहं पि पुण्णेहिं लदोसि ॥
(स० कं० ५, २२४) हे सुभग ! तेरे कान के पास चुपके से मैं कह रही हूँ तू जा भी खेद मत कर; निर्जन गलियों में तू बड़े पुण्य से मिला है।
हुणिलज्ज ! समोसर तं चिअ अणुणेसु जाइ दे गुअन् । पाआंगुहालत्तएण तिलअं विणिम्मविअम् ॥
(स० कं० ५, ४९) अरे निर्लज्ज ! दूर हो । जिसके पैर के अंगूठे के महावर ने तेरे मस्तक पर यह तिलक लगाया है, जा तू उसी की मनुहार कर ।
हुं हुं हे भणसु पुणो ण सुअन्ति (? सुअइ) करेइ कालविवअं । घरिणी हिअअसुहाई पइणो कण्णे भणन्तस्स ॥
(रु. के० ५, २३०) पति अपने हृदय के सुख को अपनी पत्नी के कान में धीरे-धीरे कर रहा है। उसे सुन कर पत्नी अपने पति को बार-बार कहने का आग्रह कर रही है। उसे नींद नहीं आ रही है, इसी तरह वह समय यापन कर रही है।