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अलंकार ग्रन्थों में प्राकृत पद्यों की सूची
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यह देखने में ठीक है कि समान व्यक्तियों में ही अनुराग करना उचित है । यदि उसका मरण भी हो जाय तो मैं तुझे कुछ न कहूंगी, क्योंकि विरह में उसका मरण भी प्रशंसनीय है । ( आक्षेप, व्यत्यास अलङ्कार का उदाहरण ) सच्छन्दरमणदंस गरसवढिअगरु अवम्महविलासं । देवेसवर मिअं को वण्णिउं तरइ ॥
(स० कुं० ५,३९५ ) दर्शन के रस से कामदेव का वेश्या - रमण का कौन वर्णन कर
जिसके साथ स्वच्छन्द रमण होता है, जिसके विलास वृद्धिंगत होता है, सुविदग्ध पुरुषों के ऐसे सकता है ? ( गणिका का उदाहरण )
सजेहि सुरहिमासो ण दाव अप्पेइ जुअइजणलक्खमुहे । अहिणवसहआरमुहे णवपल्लवपत्तले अगस्स सरे ॥
( ध्वन्या० उ० २, पृ० १८७ ) वसंत मास युवतियों को लक्ष्य करके नवीन पलवों की पत्ररचना से युक्त नूतन आम्रमञ्जरी रूपी कामबाणों को सज्जित करता है, लेकिन उन्हें छोड़ने के लिये कामदेव को अर्पित नहीं करता । ( अर्थशक्ति-उद्भव ध्वनि का उदाहरण )
सणियं वच्च किसोयरि ! पए पयन्तेण ठवसु महिवडे । हिसि वत्थणि ! विहिणा दुक्खेण णिम्मविया ॥ ( काव्या० पृ० ५५, २१ )
हे कृशोदरि ! जरा धीरे चल, अपने पैरों को जमीन पर संभाल कर रख । हे सुंदर स्तनों वाली ! तुझे कहीं ठोकर न लग जाये, बड़ी कठिनता से विधाता ने तुझे सिरजा है !
सदा मे तुज्झ पित्तणस्स कह तं तु ण याणामो ।
देसि तुमं चि सिक्खवेसु जह ते पिआ होमि ॥ ( श्रृङ्गार ४, ११) तेरे प्रियत्व में मेरी श्रद्धा है, इसे हम कैसे नहीं जानते ? इसलिये प्रसन्न हो, तू ही इस प्रकार शिक्षा दे जिससे मैं तुम्हारी भिया बन सकूँ ।
समसोक्खदुक्ख परिवड्ढिआणं कालेण रूढपेम्माणम् । मिहुणागं मरइ जं, तंखु जिआइ, इअरं मुअं होइ ॥ (स० कं० ५,२५०; गा० स० २,४२ ) समान सुख-दुख में परिवर्धित होने के कारण कालांतर में जिनका प्रेम स्थिर हो गया है ऐसे दम्पति में से जो पहले मरता है वह जीता है, और जो जीता है वह मर चुका 1
सयलं चैव निबन्धं दोहिं पाहिं कलुषं पसण्णं च दिअं । जान्ति कई कई सुद्धसहावेहिं लोभणेहिं च हिअअम् ॥ (काव्या० पृ० ४५६, ११४; रावण विजय ) समस्त रचना केवल दो बातों से कलुप और प्रसन्न होती है। शुद्ध स्वभाव और लोचनों द्वारा ही कवियों के कवि हृदय को समझते हैं ।
( 'रावणविजय' में कविप्रशंसा )