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________________ अलंकार ग्रन्थों में प्राकृत पद्यों की सूची ७७३ विहलंखलं तुम सहि ! ठूण कुडेण तरलतरदिटिम् । वारप्फंसमिसेण अ अप्पा गुरुओत्ति पाडिअ विहिण्णो॥ (काव्य० प्र०४, ९१) हे सखि ! तुम्हारे घड़े ने, विशृंखल अवस्था में अपनी दृष्टि को चंचल करती हुई तुम्हें देखकर, दरवाजे की ठेस के बहाने अपने आपको गुरु समझकर गिराते हुए टुकड़े-टुकड़े कर दिया । ( अपह्नति, उद्भेद अलङ्कार का उदाहरण) वेवइ जस्स सविडिअं वलिउं महइ पुलआइअत्थणअलसं । पेम्मसहावविमुहिअं बीआवासगमणूसुअं वामद्धम् ॥ (स० कं० ५, ४४६, सेतु० १, ६) जिस अर्धनारीश्वर का रोमांचित स्तन-कलशों वाला, प्रेमानुराग से किंकर्तव्यविमूढ़ तथा लज्नासहित वामांग, दक्षिण के अर्धमाग (नरभाग) की ओर जाने के लिये उत्सुक, कंपित होकर (आलिंगन करने के लिये) मुड़ना चाहता है। वेवइ सेअदवदनी रोमञ्चिभगत्तिए ववइ । विललुल्लु तु वलअ लहु बाहोअल्लीए रणेत्ति ॥ मुहऊ सामलि होई खणे विमुच्छइ विअग्गेण । मुद्धा मुहाल्ली तुअ पेम्मेण सा वि ण धिजइ ॥ (दशरूपक प्र०४ पृ०१८२) हे युवक ! तेरे प्रेम के कारण वह नायिका काँपने लगती है, उसके चेहरे पर पसीना आ जाता है, शरीर में रोंगटे खड़े हो जाते हैं, उसका चंचल वलय बाहुरूपी लता में मंद-मंद शब्द करता है । उसका मुँह श्याम पड़ जाता है, क्षण भर के लिये व्यग्र होकर वह मूञ्छित हो जाती है, और तुम्हारे प्रेम से उसकी मुग्ध मुखवल्ली थोड़ा भी धीरज धारण नहीं कर पाती । (स्तंभ आदि सात्त्विक भावों का उदाहरण) वेवाहिऊण बहुआ सासुरअं दोलिआइ णिजन्ती। रोअइ दिअरो तां सण्ठवेइ पासेण वच्चन्तो ॥ (स० कं०१,५६) विवाह के पश्चात् डोली में बैठा कर श्वसुरगृह को ले जाई जाती हुई वधू रुदन कर रही है, उसका देवर उसके पास पहुँच कर उसे सांत्वना देता है। वेविरसिण्णकरंगुलिपरिग्गहक्खलिअलेहणीमग्गे। सोत्थि चिअ ण समप्पइ पिअसहि ! लेहम्मि किं लिहिमो॥ ०३, ४४) काँपती हुई, स्वेदयुक्त हाथ की उंगलियों से पकड़ी हुई स्खलित लेखनी स्वस्ति भी पूरी तौर से न लिख सकी, फिर भला हे सखि ! पत्र तो मैं क्या लिखती! शदमाणशर्मशभालके कुम्भशहश्श वशाहि शञ्चिदे। अणिशं च पिआमि शोणिदे वलिशशदे शमले हुवीअदि ॥ (स० कं० २,३) एक हजार कुंभ चरबी से संचित मनुष्य मांस के सौ भारक का यदि मैं भक्षण करूँ और अनवरत शोणित का पान करूँ तो सौ वर्ष तक युद्ध होगा। (मागधी का उदाहरण)
SR No.010730
Book TitlePrakrit Sahitya Ka Itihas
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJagdishchandra Jain
PublisherChaukhamba Vidyabhavan
Publication Year1961
Total Pages864
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size45 MB
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