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अलंकार ग्रन्थों में प्राकृत पद्यों की सूची ७६३ हृदय में स्थित प्रिया के मुख रूपी ज्योत्स्ना का जलप्रवाह ग्रीष्म के मध्याह्नकाल में प्रस्थान करने वाले पथिक के संताप को दूर करता है।
. मज्झ पइण्णा एसा भणामि हिअएण जं महसि दट्ठम् । ____तं ते दावेमि फुडं गुरुणो मन्तप्पहावेण ॥
(दशरूपक प्र०१,५१, रत्नावलि ४,९) मेरी यह प्रतिज्ञा है, मैं हृदय से कहता हूँ, जो कुछ आप देखना चाहें, गुरु के मंत्र के प्रभाव से मैं आपको दिखा सकता हूँ। ( कालभैरव की उक्ति)
मसिणवसणाण कअवेणिआण आपंडुगंडवासाणं। पुप्फबइआण कामो अंगेसु कआउहो वसइ॥
(शृंगार०२७, १३.) मलिन बस्नवाली, वेगीवाली और पाण्डु कपोलवाली ऐसी रजस्वला स्त्रियों में कामदेव आयुध के साथ सज्जित रहता है।
मह देसु रसं धम्मे तमवसमासं गमागमाहरणे। हरबह ! सरणं तं चित्तमोहमवसरउ मे सहसा॥
(काव्य०प्र०९,३७२, साहित्य १०) हे गौरि ! तुम्ही एक मात्र शरण हो, धर्म में मेरी प्रीति उत्पन्न करो, मेरे गमनागमन (जन्म-मरण ) की तामसी प्रवृत्ति का नाश करो, और मेरे चित्त के मोह को शीघ्र ही दूर करो । (भाषाश्लेष का उदाहरण )
महमहइन्ति भणिन्तउ वच्चड कालो जणस्स तेइ। ण देओ जणहणो गोअरो होदि मणसो महमहणो॥
(ध्वन्या० उ०४ पृ०,६४८) 'मेरा'-'मेरा' कहते-कहते मनुष्य का सारा जीवन बीत जाता है, लेकिन हृदय में मधुमथन जनार्दन का साक्षात्कार नहीं होता।
महिलासहस्सभरिए तुह हिअए सुहय ! सा अमायन्ती।
अणुदिणमणण्णकम्मा अंगं तणुअं पि तणुएइ ॥ (ध्वन्या० उ०२, पृ० १८६, काव्या० पृ० १५५, १७७, अलंकारसर्वस्व
६०, साहित्य पृ० २५६, गा० स० श०२, ८२) हे सुभग! हजारों सुन्दरियों से पूर्ण तुम्हारे इस हृदय में न समा सकने के कारण वह अनन्यकर्मा प्रतिदिन अपनी दुर्बल देह को और भी क्षीण बना रही है।
(अर्थ शक्ति-उद्भव ध्वनि का उदाहरण) मह(१) एहि किं णिवालभ हरसि णिअंबाउ जइ वि मे सिचयम् । साहेमि कस्स सुन्दर! दूरे गामो अहं एका ॥
(काव्या० पृ०५४, १७, दशरूपक २ पृ० ११८) हे निगोड़ी वायु ! तुम बार-बार आकर नितंब से मेरे अनल को हटा देती हो, फिर भी हे सुंदर ! मैं किसे प्रसन्न करूँ, गाँव दूर है और मैं अकेली हूँ।
माए ! घरोवअरणं अज हु णत्थि त्ति साहिअं तुमए। ता भण किं करणिज्ज एमेअ ण वासरो ठाइ॥
(कान्य० प्र०२,६)