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७५८ प्राकृत साहित्य का इतिहास
पाअडिअं सोहग्गं तंबाएउ अह गोठमज्झम्मि । दुट्ठविसहस्स सिंगे अच्छिउडं कण्डअन्तीए ॥
(स० के ५, १२; गा० स०५,६०) देखो, गोठ में ताम्रवर्ण की गाय दुष्ट बैल के सींग में अपनी आँख को खुजलाती हुई अपना सौभाग्य प्रकट कर रही है।
पाणउडी अवि जलिऊण हुअवहो जलइ जण्णवाडम्मि। ण हु ते परिहरिअन्वा विसमदसासंठिआ पुरिसा॥
(स० कं. ३, ८५गा० स०३२७) मधुपान की कुटिया को जलाकर अग्मि यज्ञवाटिका को भी भस्म कर देती है। विषमदशा में स्थित पुरुषों को त्याग देना ठीक नहीं।
(निदर्शना अलंकार का उदाहरण) पाअपडिअं अहव्वे किं दाणि ण उहवेसि भत्तारं । एवं विअ अवसाणं दूरं पि गअस्स पेम्मस्स ॥
(शृंगार० ४६, २२८; गा० स०४,९०) हे अभव्ये ! क्या तू अब चरणों में गिरे हुए अपने पति को नहीं उठायेगी ? क्या दूरगत प्रेम का यही अन्त है ?
पाणिग्गहणे चिअ पव्वईअ णाअं सहीहिं सोहग्गम् । पसुवइणा वासुइकंकणम्मि ओसारिए दूरम् ॥
(स० के० ५, १८८; गा० स० १, ६९) पशुपति ने अपने वासुकिरूप कंकण को दूर हटा दिया, यह देखकर पाणिग्रहण के समय ही पार्वती की सखियों को उसके सौभाग्य का पता लग गया।
पिअंदसणेण सुहरसमुउलिअ जइ से ण होन्ति णअणाई। ता केण कण्णरइअं लक्खिजइ कुवल तिस्सा ॥
(स० के० ३, १२७; गा० स० ४, २३) यदि उसके नयन प्रियदर्शन के सुखरस से मुकुलित न हों तो उसके कानो में सजे हुए कमलों की ओर किसका ध्यान पहुँचेगा ( इससे नयनों का सौन्दर्य सूचित किया गया है)? (तद्गुण, मीलित और विवेक अलङ्कार का उदाहरण)
पिअलंभेण पओसो जाआ दिण्णप्फला रइसुहेण णिसा। आणिअविरहुक्कंठो गलइ अ णिविण्णवम्महो पञ्चूसो॥
(शृङ्गार० २१, ९४) प्रिय को पाकर प्रदोष हो गया, रात्रि में रतिसुख का फल प्राप्त हुआ और अब विरह की उत्कंठा लाने वाला खेदखिन्न कामदेव से युक्त प्रभात काल बीत रहा है।
पिअसम्भरणापल्लोटुंतवाहधाराणिवाअभीआए । दिज्जइ वंकग्गीवाइ दीवओ पहिअजाए॥
(स० ० ५, २०४, गा० स०३, २२)