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७५२ . प्राकृत साहित्य का इतिहास
धरहरइ उरूजुअलं झिजइ वअणं ससज्झसं हिअअं। बालाए पढमसुरए किं किं ण कुणंति अंगाइं ॥।
(श्रृंगार० २०, ९१) उरुयुगल कंपित हो रहा है, मुख झीज रहा है, हृदय में भय उत्पन्न हो रहा है, प्रथम सुरत के प्रसंग में बाला के अंग क्या-क्या नहीं करते ?
धवलो सि जइ वि सुन्दर ! तहवि तए मज्झ रंजिअं हिअअं।
रायभरिए वि हियए, सुहय ! निहित्तो. न रत्तोसि ॥ (काव्या० पृ० ३७७, ६०६; काव्यप्रकाश १०, ५६४; गा० स०७,६५)
हे सुंदर ! यद्यपि तू धवल ( श्रेष्ठ ) है, फिर भी तूने मेरा हृदय रंग दिया है । लेकिन हे सुभग ! अनुराग पूर्ण मेरे हृदय में रहते हुए भी तू रक्त नहीं होता।
(अतद्गुण अलङ्कार का उदाहरण) धीराण रमइ घुसिणारुणम्मि न तहावि या थगुच्छंगे। दिट्ठी रिउगयकुंभत्थलम्मि जह बहलसिंदूरे ॥
(काव्या० पृ० ७५, ७२; ध्वन्या० २, पृ. ११९ ) धीर पुरुषों की दृष्टि जितनी सिंदूर से पूर्ण शत्रुओं के हाथियों के गंडस्थल को देखने में रमती है, उतनी कुंकुम से रक्त अपनी प्रिया के स्तनों में नहीं।
(उपमाध्वनि का उदाहरण) धीरेण माणभंगो माणक्खलगेण गरुअधीरारम्भो। उल्ललइ तुलिज्जन्ते एक्कम्मि वि से थिरं न लग्गइ हिअ॥
(स० के० ५, ४९२) धीरज से मान भंग हो जाता है और मान भंग होने से फिर महान् धीरज आरंभ होता है, इस प्रकार उस ( मानिनी ) का हृदय तराजू की भाँति ऊपरनीचे जा रहा है, वह एक जगह स्थिर नहीं रहता।
(स्वभावोक्ति अलङ्कार का उदाहरण ) धीरेण समं जामा हिअएण समं अणिटिआ उवएसा । उच्छाहेण सह भुआ बाहेण समं गलन्ति से उल्लावा ॥
(स० के० ४, १३२, सेतुबंध ५, ७) (राम के ) धैर्य के साथ रात्रि के पहर, उसके हृदय के साथ अनिश्चित उपदेश, उत्साह के साथ भुजायें और अश्रुओं के साथ वचन विगलित होते हैं ।
(सहोक्ति अलङ्कार का उदाहरण ) धीरं व जलसमूहं तिमिणिवहं विअ सपक्खपव्वअलोअम् । णहसोत्तेव तरंगे रमणाई व गुरुअगुणसआई वहन्तम् ॥
(स० के०४, १३३; सेतु०२,१४) धैर्य की भाँति जलसमूह को, तिमिंगल मत्स्यों की भाँति पक्षसहित पर्वतलोक को, नदी के स्रोत की भाँति तरंगों को और रत्नों की भाँति सैकड़ों महान् गुणों को धारण करता हुआ (समुद्र दिखाई दे रहा है)। (सहोक्ति अलङ्कार का उदाहरण)