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काव्यानुशासन
(क) प्राकृत भाषा के श्लोक का अर्थ
( मह देसु रसं धम्मे, तमवसम् आसम् गमागमा हरणे । हरबहु ! सरणं तं चित्तमोहं अवसरउ मे सहसा )
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- हे हरवधु गौरि ! तुम्हीं एक मात्र शरण हो, प्रीति उत्पन्न करो, आवागमन के निदान इस तामसी वृत्ति का नाश करो, और मेरे चित्त का दूर करो !
धर्म में मेरी संसार में मेरी
मोह शीघ्र ही
( ख ) संस्कृत भाषा के श्लोक का अर्थ
( हे उमे ! मे महदे आगमाहरणे तं सुरसन्धं समासंग अव, अवसरे (च) बहुसरणं चित्तमोहं सहसा हर )
- हे उमे ! मेरे जीवन के महोत्सवरूप आगमविद्या के उपार्जन में देवों द्वारा भी सदा अभीप्सित मेरे मनोयोग की निरन्तर रक्षा करो, और समय-समय पर प्रसरणशील चित्तमोह को शीघ्र ही हटाओ |
प्रतीपालंकार का उदाहरण देखिये
ए एहि दाव सुन्दरि ! कण्णं दाऊण सुणसु वअणिजम् । तुझ मुहेण किसोअरि ! चन्दो उवमिज्जइ जगेण ।। १०.५५४
- हे सुन्दरि ! हे कृशोदरि ! इधर आ, कान देकर अपनी इस निन्दा को सुन कि अब लोग तेरे मुख की उपमा चन्द्रमा से देने लगे हैं !
काव्यानुशासन
मम्मट के काव्यप्रकाश के आधार पर हेमचन्द्र, विश्वनाथ और पंडितराज जगन्नाथ ने अपनी-अपनी रचनायें प्रस्तुत की हैं । सर्वप्रथम कलिकालसर्वज्ञ हेमचन्द्र ने काव्यानुशासन की रचना की। जैसे उन्होंने व्याकरण पर शब्दानुशासन (सिद्धम) और छन्दशास्त्र पर छन्दोनुशासन लिखा, वैसे ही काव्य के ऊपर काव्यानुशासन लिखकर उसमें काव्य समीक्षा की । हेमचन्द्र के