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प्राकृत साहित्य का इतिहास
प्राकृतपैंगल प्राकृतपैंगल' में भिन्न-भिन्न ग्रन्थकारों की रचनाओं में से प्राकृत छन्दों के उदाहरण दिये गये हैं। आरंभ में छन्दशास्त्र के प्रवर्तक पिंगलनाग का स्मरण किया है। यहाँ मेवाड के राजपूत राजा हमीर ( राज्यकाल का समय ईसवी सन् १३०२) तथा सुलतान, खुरसाण, ओल्ला, साहि, आदि का उल्लेख पाया जाता है। हरिबंभ, हरिहरबंभ, विजाहर, जजल आदि कवियों का संग्रहकर्ता ने नाम निर्देश किया है। राजशेखर की कर्परमंजरी में से यहाँ कुछ पद्य उद्धृत हैं। इन सब उल्लेखों के ऊपर से प्राकृतपैगल के संग्रहकर्ता का समय आचार्य हेमचन्द्र के पश्चात ही स्वीकार किया जाता है। इस कृति पर ईसवी सन् की १६वीं अथवा १७वीं शताब्दी के आरंभ में टीकायें लिखी गई है। विश्वनाथपंचानन की पिंगलटीका, वंशीधरकृत पिंगलप्रकाश, कृष्णीयविवरण तथा यादवेन्द्रकृत पिंगलतत्त्वप्रकाशिका नाम की टीकायें मूलग्रन्थ के साथ प्रकाशित हुई हैं। अवहट्ट का प्रयोग यहाँ काफी मात्रा में मिलता है।
स्वयंभूछन्द यह छन्दोग्रन्थ महाकवि स्वयंभू का लिखा हुआ है जिसमें अपभ्रंश छन्दों के उदाहरण प्रस्तुत किये गये हैं। स्वयंभू की पउमचरिय में से यहाँ अनेक उदाहरण दिये हैं। स्वयंभूछन्द के कितने ही छंद के लक्षण और उदाहरण हेमचन्द्र के छन्दानुशासन में पाये जाते हैं।
१. चन्द्रमोहनधोप द्वारा संपादित, द एशियाटिक सोसायटी ऑव बंगाल, कलकत्ता द्वारा १९०२ में प्रकाशित ।
२. यह ग्रंथ प्रोफेसर एच. डी. वेलेनकर के सम्पादकत्व में सिन्धी जैन ग्रन्थमाला सीरीज में प्रकाशित हो रहा है। इसकी मुद्रित प्रति मुनि जिनविजय जी की कृपा से देखने को मुझे मिली है।