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६५० प्राकृत साहित्य का इतिहास प्राकृत श्प्राखेन' (स्ट्रैसवर्ग से सन् १६०० में प्रकाशित ) 'प्राकृत भाषाओं का व्याकरण' नाम से डाक्टर हेमचन्द्र जोशी द्वारा हिन्दी में अनूदित होकर बिहार-राष्ट्रभाषा-परिपद्, पटना से प्रकाशित हो चुका है।
(ख ) छन्दोग्रन्थ
वृत्तजातिसमुच्चय व्याकरण की भाँति काव्य को सार्थक बनाने के लिये छंद की भी आवश्यकता होती है । छंद के ऊपर भी प्राकृत में ग्रन्थों की रचना हुई । वृत्तजातिसमुच्चय छंदशास्त्र का प्राकृत में लिखा हुआ एक महत्त्वपूर्ण प्राचीन ग्रंथ है जिसके कर्ता का नाम विरहांक है। विरहांक जाति के ब्राह्मण थे तथा संस्कृत और प्राकृत के विद्वान् थे । दुर्भाग्य से ग्रन्थ के कर्ता का वास्तविक नाम जानने के हमारे पास साधन नहीं है। विरहांक ने अपनी प्रिया को लक्ष्य करके इस ग्रन्थ की रचना की है। ग्रन्थ के आदि में ग्रन्थकता ने सरस्वती को नमस्कार करने के पश्चात् गन्धहस्ति, सद्भावलांछन, पिंगल और अपलेपचिह्न को नमस्कार किया है। आगे चलकर विषधर (कम्बल और अश्वतर), सालाहण, भुजगाधिप और वृद्धकवि का भी उल्लेख किया है। दुर्भाग्य से विरहांक ने छन्दों का उदाहरण देने के लिये तत्कालीन प्राकृत और अपभ्रंश के कवियों की रचनाओं का उपयोग अपने ग्रन्थ में नहीं किया। उस समय अपभ्रंश बोलियाँ प्राकृत भापाओं के साथ स्थान प्राप्त करने के लिये प्रयत्नशील हो रही थीं, इसके ऊपर से प्रोफेसर वेलेनकर ने कवि विरहांक का समय ईसवी सन् की छठी और आठवीं शताब्दी के बीच स्वीकार किया है।
१. यह अन्य प्रोफेसर एच० डी० वेलेनकर द्वारा संपादित होकर उनकी विद्वत्तापूर्ण प्रस्तावना के साथ सिंघी जैन ग्रन्थमाला बम्बई से शीघ्र ही प्रकाशित हो रहा है । मुनि जिनविजय जी की कृपा से यह मुद्रित अन्य मुझे देखने को मिला है।