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प्राकृतमणिदीप
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विस्तारपूर्वक विवेचन किया है। जैसा हम ऊपर देख आये हैं आचार्य हेमचन्द्र ने भी भाषाओं का यही विभाग किया है । ' अपभ्रंश का भी लक्ष्मीधर ने विस्तृत विवेचन किया है, अन्तर इतना ही है कि हेमचन्द्र की भाँति उन्होंने अपभ्रंश के ग्रन्थों में से उदाहरण नहीं दिये । लक्ष्मीधर लक्ष्मणसूरि के नाम से भी कहे जाते थे, ये आंध्रदेश के रहनेवाले शिवोपासक थे । त्रिविक्रम की वृत्ति के आधार पर उन्होंने पड्भापाचन्द्रिका की रचना की है । त्रिविक्रम, हेमचन्द्र और भामह को गुरु मानकर प्रस्तुत ग्रन्थ में इन्हीं की रचनाओं को उन्होंने संक्षेप में प्रस्तुत किया है । लक्ष्मीधर की अन्य रचनाओं में गीतगोविन्द और प्रसन्नराघव की टीकायें मुख्य हैं ।
प्राकृतमणिदीप
प्राकृतमणिदीप ( अथवा प्राकृतमणिदीपिका ) के कर्ता अप्पयदीक्षित हैं जो शैवधर्मानुयायी थे। ईसवी सन् १५५३ - १६३६ में ये विद्यमान थे । उन्होंने शिवार्कमणिदीपिका आदि शैवधर्म के अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की रचना की है । कुवलयानन्द के भी ये कर्ता हैं । अप्पयदीक्षित ने त्रिविक्रम, हेमचन्द्र और लक्ष्मीधर का उल्लेख अपने ग्रन्थ में किया है । ग्रन्थकार के कथनानुसार पुष्पवननाथ, वररुचि और अप्पयज्वन् ने जो
यह अयोग्य समझी जाती थी ( श्लोक ३१ ) । इसके समर्थन में लेखक दंडी का उद्धरण दिया है ।
१. भामकवि की पड्भापाचन्द्रिका, दुर्गणाचार्य की पभाषारूपमालिका तथा षड्भापामंजरी, पड्भापासुचंतादर्श और पभाषाविचार में भी इन्हीं छह भाषाओं का विवेचन है, देखिये पद्मापाचन्द्रिका की भूमिका पृष्ठ ४ ।
२. श्रीनिवास गोपालाचार्य की टिप्पणी सहित ओरिएण्टल रिसर्च इंस्टिट्यूट पब्लिकेशन्स युनिवर्सिटी ऑव मैसूर की ओर से सन् १९५४ में प्रकाशित |