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प्राकृत साहित्य का इतिहास प्राकृतपाद नाम के आठवें अध्याय में प्राकृतव्याकरण लिखा गया है, शेष सामग्री की सजावट, पारिभाषिक शब्दों के नाम आदि में दोनों में कोई साम्य नहीं। क्रमदीश्वर ने भी वररुचि का ही अनुगमन किया है। इनके संक्षिपसार पर कई टीकायें लिखी गई हैं। स्वयं क्रमदीश्वर की एक स्वोपज्ञ टीका है, इस टीका की एक व्याख्या भी है। केवल प्राकृतपाद की टीका चण्डीदेवशर्मन ने प्राकृतदीपिका नाम से की है। क्रमदीश्वर का समय ईसवी सन् की १२वीं-१३वीं शताब्दी माना गया है।
प्राकृतानुशासन इसके कर्ता पुरुषोत्तम हैं जो ईसवी सन् की १२ वीं शताब्दी में हुए हैं। ये वंगाल के निवासी थे। इसमें तीन से लगाकर बीस अध्याय हैं,-तीसरा अध्याय अपूर्ण है। नौंवे अध्याय में शौरसेनी और दसवें में प्राच्या के नियम दिये हैं। प्राच्या को लोकोक्ति-बहुल बताया है, इसके शेष रूप शौरसेनी के समान होते हैं। ग्यारहवें अध्याय में अवन्ती और बारहवें में मागधी का विवेचन है। तत्पश्चात् विभाषाओं में शाकारी, चांडाली, शाबरी और टक्कदेशी के नियम बताये हैं। शाकारी में क और टक्की में उद् की बहुलता पाई जाती है। इसके बाद अपभ्रंश में नागरक, ब्राचड, उपनागर आदि का विवेचन है। अन्त में कैकेय, पैशाचिक और शौरसेनी पैशाचिक के लक्षण दिये हैं।
संबंध में विस्तारपूर्वक लिखा है। इनका 'राडिकेस प्राकृतिकाएँ' सन् १८३९ में खेलिउस द्वारा प्रकाशित हुआ है। फिर राजेन्द्रलाल मित्र ने प्राकृतपाद का सम्पूर्ण संस्करण बिब्लिओथिका इंडिका में प्रकाशित कराया । इसका नया संस्करण सन् १८८९ में कलकत्से से छपा था।
१. एल. नित्ती डौल्ची द्वारा महत्वपूर्ण फ्रेन्च की भूमिका सहित सन् १९३८ में पेरिस से प्रकाशित । डाक्टर मनोमोहनघोष द्वारा संपादित प्राकृतकल्पतरु के साथ परिशिष्ट १ में पृ० १५६-१६९ तक अंग्रेजी अनुवाद के साथ प्रकाशितः ।