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आगमा का महत्व परंपरा, तत्कालीन राजे-महाराजे तथा अन्य तीर्थकों के मत-मतान्तरों का विवेचन है। कल्पसूत्र में महावीर का विस्तृत जीवन, उनकी विहार-चर्या और जैन श्रमणों की स्थविरावली उपलब्ध होती है | कनिष्क राजा के समकालीन मथुरा के जैन शिलालेखों में इस स्थविरावली के भिन्न-भिन्न गण, कुल और शाखाओं का उल्लेख किया गया है। ज्ञातृधर्मकथा में निर्ग्रथप्रवचन की उद्बोधक अनेक भावपूर्ण कथा-कहानियों, उपमाओं और दृष्टान्तों का संग्रह है जिससे महावीर की सरल उपदेशपद्धति पर प्रकाश पड़ता है । आचारांग, सूत्रकृतांग, उत्तराध्ययन और दशवकालिक सूत्रों के अध्ययन से जैन मुनियों के संयमपालन की कठोरताका परिचय प्राप्त होता है । डाक्टर विन्टरनीज़ ने इस प्रकार के साहित्य को श्रमण-काव्य नाम दिया है जिसकी तुलना महाभारत तथा बौद्धों के धम्मपद और सुत्तनिपात आदि से की गई है। राजप्रश्नीय, जीवाभिगम और प्रज्ञापना आदि सूत्रों में वास्तुशास्त्र, संगीत, नाट्य, विविध कलायें, प्राणिविज्ञान, वनस्पतिविज्ञान आदि अनेक विषयों का विवेचन मिलता है। छेदसूत्र तो आगमसाहित्य का प्राचीनतम महाशास्त्र है जिसमें निर्ग्रन्थ श्रमणों के आहार-विहार, गमनागमन, रोग-चिकित्सा, विद्या-मंत्र, स्वाध्याय, उपसर्ग, दुर्भिक्ष, महामारी, तप, उपवास, प्रायश्चित्त आदि से सम्बन्ध रखनेवाली विपुल सामग्री भरी पड़ी है जिसके अध्ययन से तत्कालीन समाज का एक सजीव चित्र सामने आ जाता है। बृहत्कल्पसूत्र में उल्लेख है कि श्रमण भगवान महावीर जब साकेत के सुभूमिभाग उद्यान में विहार कर रहे थे तो उन्होंने अपने भिक्षु-भिक्षुणियों को पूर्व दिशा में अंग-मगध तक, दक्षिण में कौशांबी तक, पश्चिम में थूणा (स्थानेश्वर) तक तथा उत्तर में कुणाला (उत्तरकोसल ) तक विहार करने का आदेश दिया । इतने ही क्षेत्र को उस समय उन्होंने जैन श्रमणों के विहार करने योग्य मान कर आर्य क्षेत्र घोषित किया था । निस्सन्देह इस सूत्र को महावीर जितना ही प्राचीन मानना चाहिये । भाषाशास्त्र की दृष्टि से भी प्राकृत