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६२४ प्राकृत साहित्य का इतिहास देखते हुए खड़ा है जिससे जान पड़ता है वह मेरी ही प्रतीक्षा में है। अस्तु, पास में जाता हूँ (पास जाकर ) प्रिय वयस्य की जय हो ! हे वयस्य ! तुम्हारे इष्टकार्य की सिद्धि होने से तुम बड़े भाग्यशाली हो।
नागानन्द में संस्कृत का प्राधान्य है । यहाँ भी नटी, चेटी, नायिका, मलयवती, प्रतिहारी तथा विदूपक, विट और किङ्कर आदि प्राकृत में वार्तालाप करते है। किङ्कर के मुख से यहाँ मागधी बुलवाई गई है
एदं लत्तंसुअजुअलं पलिहाय आलुह वज्झसिलं | जेण तुमं लत्तंसुअचिण्णोवलक्खिदं गरुडो गेण्हिअ आहालं करिस्सदि (चतुर्थ अङ्क)।
-इस रक्तांशुक-युगल को धारण कर वध्यशिला पर आरोहण करो जिससे रक्त अंशुक चिह्न से चिह्नित तुम्हें ग्रहण करके गरुड तुम्हारा आहार करेगा।
भवभूति के नाटक भवभूति (ईसवी सन् की सातवीं शताब्दी) के महावीरचरित, मालतीमाधव और उत्तररामचरित नाटकों में संस्कृत का प्राधान्य पाया जाता है। संस्कृत के आदर्श पर ही उन्होंने शौरसेनी का प्रयोग किया है। वररुचि आदि के प्राकृतव्याकरणों के प्रयोग यहाँ देखने में आते हैं ।
मुद्राराक्षस विशाखदत्त (ईसवी सन् की नौवीं शताब्दी) के मुद्राराक्षस' में प्राकृत के प्रयोग मिलते हैं, यद्यपि यहाँ भी संस्कृत को ही महत्त्व दिया गया है। शौरसेनी, महाराष्ट्री और मागधी का प्रयोग यहाँ किया गया है। चन्दनदास का शॉरमेनी में एक स्वगत सुनिये
चाणकम्मि अकरणे सहसा सहाविदस्म बमुदि।। णिहासस्सवि संका किं उण संजाददासरत ।। ( अङ्क २) १. हिलेबाण्ट, ग्रेसली, १९१२