________________
६१८
प्राकृत साहित्य का इतिहास चिरअदि मणिआ। ता कहिं णु हु सा । (गवाक्षेण दृष्ट्या) कधम् एसा केनावि पुरिसकेण सह मंतअंती चिट्ठदि । जधा अदिसिणिद्धाए णिञ्चलदिट्ठीए आपिबंती विअ एवं निझाअदि तथा तक्केमि एसो सो जणो एवं इच्छदि अभुजिस्सं कादुम् । ता रमदु रमदु, मा कस्सावि पीदिच्छेदो भोदु | ण हु सद्दावि. स्सम् (चतुर्थ अङ्क)।
-मदनिका को बहुत देर हो गई। वह वहाँ चली गई ? (झरोखे में से देखकर ) अरे ! वह तो किसी पुरुप से बातचीत कर रही है। मालूम होता है अत्यन्त स्निग्ध निश्चल दृष्टि से उसका पान करती हुई उसके ध्यान में वह रत है। मालूम होता है यह पुरुष उसका उपभोग करना चाहता है। खैर, कोई बात नहीं, वह आनन्द से रमण करे, रमण करे। किसी की प्रीति का भङ्ग न हो । मैं उसे न बुलाऊँगी।
राजा का साला शकार मागधी में वसन्तसेना वेश्या का चित्रण करता है
एशा णाणकमूशिकामकशिका मच्छाशिका लाशिका । णिण्णाशा कुलणाशिका अवशिका कामस्स मनुशिका | एशा वेशवहू शुवेशणिलआ वेशंगणा वेशिआ । एशे शे दश णामके मयि कले अन्जावि मं णेच्छदि ।
(प्रथम अङ्क) -यह धन की चोर, काम की कशा ( कोड़ा), मत्स्यभक्षी, नर्तिका, नककटी, कुल की नाशक, स्वछंद, कामकी मंजूपा, वेशवधू, सुवेशयुक्त, और वेश्यांगना-इस प्रकार उसके दस नाम मैंने रक्खे हैं, फिर भी वह मुझे नहीं चाहती।'
१. वेश्याओं के वेश के सम्बन्ध में चतुर्भाणी (पृ० ३१ ) में
कामावेशः कैतवस्योपदेशो मायाकोशो वञ्चनासन्निवेशः ।