________________
सोरिचरित
६०५ सो सणो असिविणो अ-पावअं
गालए महिवणे मुअंगओ ॥१७॥ वररुचि के प्राकृतप्रकाश (१.३) में ईषत् , पक्व, स्वप्न, वेतस, व्यजन, मृदङ्ग और अंगार शब्दों के क्रमशः ईसि-ईस, पिक-पक्का, सवण-सिविण, वेअस-वेइस, वअण-विअण, मुअंगमुइंग और अंगाल-इंगाल प्राकृत रूप समझाये हैं। इनमें ईसि, पिक, वेडिस (प्राकृतप्रकाश में वइस रूप है), विअण, असुइण (प्राकृतप्रकाश में असवण), इंगाल और मिअंग (प्राकृतप्रकाश में मुइंग); तथा ईस, पक्क, वेडस, (प्राकृतप्रकाश में वेअस ), वअण, असिविण, अंगाल और मुअंग रूपों के उदाहरण प्रस्तुत किये हैं।
सोरिचरित (शौरिचरित ) दुर्भाग्य से शौरिचरित्र की पूर्ण प्रति अभी तक उपलब्ध नहीं हुई है। मद्रास की प्रति में इसके कुल चार आश्वास प्राप्त हुए हैं। शौरिचरित के कर्ता का नाम श्रीकण्ठ है, ये मलाबार में कोल-त्तुनाड के राजा केरलवर्मन् की राजसभा के एक बहुश्रुत पण्डित थे । ईसवी सन् १७०० में उन्होंने शौरिचरित की यमक काव्य में रचना की है। कुछ विद्वानों के अनुसार श्रीकण्ठ का समय ईसवी सन् की १५वीं शताब्दी का प्रथमाध माना गया है। रघूदय श्रीकण्ठ की दूसरी रचना है जो संस्कृत में है और यह भी यमक काव्य में लिखी गई है। श्रीकण्ठ के शिष्य रुद्रमिश्र ने शौरिचरित और रघूदय दोनों पर विद्वत्तापूर्ण टीकायें लिखी हैं। शौरिचरित की टीका में वररुचि और त्रिविक्रम के प्राकृलक्ष्याकरण के आधार से शब्दों को सिद्ध किया गया है।
शौरिचरित में कृष्ण के चरित का चित्रण है। काव्यचातुर्य इसमें जगह-जगह दिखाई पड़ता है, प्रत्येक गाथा में
१. डा० ए० एन० उपाध्ये ने जर्नल ऑव द युनिवर्सिटी ऑव बम्बई, जिल्द १२, १९४३-४५ में इस काव्य के प्रथम आश्वास को सम्पादित किया है।