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प्राकृत साहित्य का इतिहास गया। आगमों की इस वाचना को प्रथम बलभी वाचना कहते हैं।'
इन दोनों वाचनाओं का उल्लेख ज्योतिष्करंडकटीका आदि ग्रंथों में मिलता है। ज्योतिष्करंडकटीका के कर्ता आचार्य मलयागिरि के अनुसार अनुयोगद्वार आदि सूत्र माथुरी वाचना
और ज्योतिष्करंडक वलभी वाचना के आधार से संकलित किये गये हैं । उक्त दोनों वाचनाओं के पश्चात् आर्यस्कंदिल और नागार्जुन सूरि परस्पर नहीं मिल सके और इसीलिये सूत्रों में वाचनाभेद स्थायी बना रह गया ।२
तत्पश्चात् लगभग १५० वर्ष बाद, महावीरनिर्वाण के लगभग ६८० या ६६३ वर्ष पश्चात् (ईसवी सन् ४५३-४६६-में ) वलभी में देवर्धिगणि क्षमाश्रमण के नेतृत्व में चौथा सम्मेलन बुलाया गया । इस संघसमवाय में विविध पाठान्तर और वाचनाभेद आदि का समन्वय करके माथुरी वाचना के आधार से आगमों को संकलित कर उन्हें लिपिबद्ध कर दिया गया। जिन पाठों का समन्वय नहीं हो सका उनका 'वायणान्तरे पुण', 'नागार्जुनीयास्तु एवं वदन्ति' इत्यादि रूप में उल्लेख किया गया । दृष्टिवाद फिर भी उपलब्ध न हो सका, अतएव उसे व्युच्छिन्न घोषित कर दिया गया । इसे जैन आगमों की अंतिम और द्वितीय वलभी
१. कहावली, २९८, मुनि कल्याणविजय, वीरनिर्वाण और जैनकालगणना, पृष्ठ १२० आदि; मुनि पुण्यविजय, भारतीय जैन श्रमण परंपरा अने लेखनकला. पृष्ठ १६ टिप्पण ।
२. ज्योतिष्करंडकटीका, पृष्ठ ४१; गच्छाचारवृत्ति ३; जंबूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्र १७ टीका, पृष्ठ ८७ ।
३. देखिये मुनि कल्याणविजय, वीरनिर्वाण और जैन कालगणना, पृष्ठ ११२-११८।