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५७४ प्राकृत साहित्य का इतिहास और कवयित्रियों की चुनी हुई लगभग सात सौ गाथाओं का संग्रह है। पहले यह गाहाकोस नाम से कहा जाता था । बाणभट्ट ने अपने हर्षचरित में इसे इसी नाम से उल्लिखित किया है। उपमा, रूपक आदि अलंकारों से सज्जित ध्वनि-अर्थ-प्रधान ये गाथायें महाराष्ट्री प्राकृत में आर्या छंद में लिखी गई हैं। कहा जाता है कि गाथासप्तशती के संग्रहकर्ता ने एक करोड़ प्राकृत पद्यों में से केवल ७०० पद्यों को चुनकर इसमें रक्खा है। बाण, रुद्रट, मम्मट, वाग्भट, विश्वनाथ और गोवर्धन आचार्य आदि काव्य और अलंकार-ग्रन्थों के रचयिताओं ने इस काव्य की मुक्तकंठ से प्रशंसा की है और इसकी गाथाओं को अलंकार, रस आदि के उदाहरण के रूप में उद्धृत किया है। गोवर्धनचार्य ने तो यहाँ तक कहा है कि प्राकृत काव्य में ही ऐसी सरसता आ सकती है, संस्कृत काव्य में नहीं। सचमुच ,
रचना की है। यहाँ प्रवरसेन का नाम भी आता है। लेकिन प्रवरसेन का समय ईसवी सन् की ५वीं शताब्दी माना जाता है। इसका समाधान प्रोफेसर वासुदेव विष्णु मिराशी ने १३वीं ऑल इण्डिया ओरिंटिएल कॉन्फरेंस, नागपुर, १९४६ में पठित 'द ओरिजिनल नेम ऑय गाथासप्तशती' नामक लेख में किया है कि गाथा सप्तशती का मूल नाम गाहाकोस था। पहले इसमें पद्यों की संख्या कम थी, बाद में जैसे-जैसे श्रेष्ठ कवि होते गये, उनकी रचनाओं का इसमें समावेश होता गया।
१. काव्यमाला २१ में निर्णयसागर प्रेस, बंबई से सन् १९३३ में प्रकाशित । वेबर ने इसके आरंभ की ३७० गाथायें 'इ० यूवर डास सप्तशतकम् डेस हाल' नाम से लाइसिख, १८७० में प्रकाशित कराई थी। उसके बाद सन् १८८१ में उसने सप्तशती का संपूर्ण संस्करण प्रकाशित किया-इसका जर्मन अनुवाद भी किया। इसका एक उत्तम संस्करण दुर्गाप्रसाद और काशीनाथ पांडुरंग परब ने निकाला है जो गंगाधर भट्ट की टीका सहित निर्णयसागर प्रेस से काव्यमाला के ३१वें भाग में प्रकाशित हुआ है।