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कण्हचरिय है। अन्त में मेघकुमार दीक्षा ले लेते हैं। सुपात्रदान में वीरभद्र और करुणादान में राजा सम्प्रति की कथा दी है। शील में सुदर्शन का दृष्टान्त है । तप के उदाहरण दिये गये हैं। ऋषभदेव के चरित में भरत और बाहुबलि का आख्यान है। अठारह पापस्थानों की उदाहरणपूर्वक व्याख्या की गई है। फिर भव्यअभव्य के सम्बन्ध में चर्चा है। अन्त में जयन्ती महावीर भगवान के समीप दीक्षा ग्रहण करती है और चारित्र का पालन कर मोक्ष प्राप्त करती है।
कण्हचरिय ( कृष्णचरित) रामचरित की भाँति कृष्ण के भी अनेक चरित प्राकृत में लिखे गये हैं। इस के कर्ता सुदसणाचरिय के रचयिता तपा. गच्छीय देवेन्द्रसूरि हैं।' यह चरित श्राद्धदिनकृत्य की वृत्ति में से उद्धृत किया गया है, जिसमें नेमिनाथ का चरित भी अन्तर्भूत है। __प्रस्तुत चरित में वसुदेव के पूर्वभव, कंस का जन्म, वसुदेव का भ्रमण, अनेक राज्यों से कन्याओं का ग्रहण, चारुदत्त का वृत्तान्त, रोहिणी का परिणयन, कृष्ण और बलदेव के पूर्वभव, नारद का वृत्तान्त, देवकी का ग्रहण, कृष्ण का जन्म, नेमिनाथ का पूर्वभव, नेमि का जन्म-महोत्सव, कंस का बध, द्वारिका नगरी का निर्माण, कृष्ण की अग्र महिषियाँ, प्रद्युम्न का जन्म, पाण्डवों की परम्परा, द्रौपदी के पूर्वभव, जरासंध के साथ युद्ध, कृष्ण की विजय, राजीमती का जन्म, नेमिनाथ और राजीमती के विवाह की चर्चा, नेमिनाथ का विवाह किये बिना ही मार्ग से लौट आना, उनकी दीक्षा, धर्मोपदेश, द्रौपदी का हरण, गजसुकुमाल का वृत्तान्त, यादवों की दीक्षा, ढंढणऋपि की कथा, रथनेमि और राजीमती का संवाद, थावच्चापुत्र का वृत्तांत, शैलक की कथा, द्वीपायन द्वारा द्वारिका का दहन, राम और कृष्ण का निर्गमन,
१. केशरीमल जी संस्था, रतलाम द्वारा सन् १९३० में प्रकाशित ।